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166 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री संयम, दानादि धार्मिक अनुष्ठान करने से पाप (अशुभ) स्वप्न भी अल्प (मन्द) फल देने वाला होता है।"316
रिष्टद्वार :- प्रस्तुत ग्रन्थ के रिष्टद्वार में मरण के उपायों पर प्रकाश डाला गया है। इसमें रिष्ट का अर्थ अमंगल कहा है। मृत्यु अमंगल के बिना नहीं होती है। अमंगल देखने के पश्चात् जीवन बचता नहीं है। अमंगल मृत्यु का सूचक है, इसलिए इस पर सदैव ध्यान से विचार करना चाहिए। लक्षण बिना प्रकृति में जो बदलाव नजर आता है, उसे ही रिष्ट (अमंगल) समझना चाहिए, जैसे- स्वयं का पैर कीचड़ में अथवा रेती में धंसा हुआ अपूर्ण दिखाई देता हो, तो आठ महीने में मृत्यु हो जाती है। यदि रोगी घी के पात्र में सूर्य का प्रतिबिम्ब देखते हुए पूर्व दिशा को खण्डित देखे, तो छ: महीने में, दक्षिण दिशा को खण्डित देखे, तो तीन महीने में, पश्चिम दिशा को खण्डित देखे, तो दो महीने में और उत्तर दिशा को खण्डित देखे, तो एक महीने में वह मरण को प्राप्त करता है।"317 साथ ही इसमें यदि सूर्य को रेखाओं से युक्त देखे, तो पन्द्रह दिन तक, छिद्रयुक्त देखे, तो दस दिन तक और धूम्रसहित देखे, तो पाँच दिन तक जीवन रहता है - ऐसा उल्लेख उपलब्ध होता है। 318
“यदि सूर्य, चन्द्र और ताराओं के समूह को जो निस्तेज देखता है, वह एक वर्ष तक जीवित रहता है, जो सर्वथा ही नहीं देखता है, वह छः महीने तक जीवित रहता है। यदि सूर्य, चन्द्र के बिम्ब अकस्मात् नीचे गिरते हुए दिखें, तो बारह दिन एवं दो सर्य दिखें, तो तीन महीने शेष जानना चाहिए। जिसकी विष्ठा काली एवं खण्डित हो, तो वह शीघ्र मरता है। जिसे नेत्र से भृकुटि न दिखे, तो नौ दिन में एवं अंगुली से आँख को ढंकने पर यदि बाई आँख के नीचे प्रकाश दिखाई नहीं दे, तो छः महीने में, कान की ओर प्रकाश नहीं दिखे, तो दो महीने में, नाक की ओर प्रकाश नहीं दिखे, तो एक महीने में मृत्यु होती है।"319 - "हेमचन्द्राचार्य ने भी योगशास्त्र के पाँचवें प्रकाश में रिष्टद्वार के सन्दर्भ में यही बातें उल्लेखित की हैं। इसमें आगे कहा है कि निश्चित होकर देखने पर भी यदि नासिका नहीं दिखे, तो पाँच दिन एवं मुख से निकली हुई जीभ के अन्तिम भाग को नहीं देख सकता हो, तो वह एक अहोरात्रि जीवित रहता है।"320
316 संवेगरंगशाला गाथा, ३२२२-३२२४.
। संवेगरंगशाला गाथा, ३२२५-३२२८ तथा ३२२६ से ३२३२. 318 संवेगरंगशाला गाथा, ३२३३-३२३४.
संवेगरंगशाला गाथा, ३२५३-३२५६. 320 योगशास्त्र, गाथा १२६-१३६.
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