SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 165 इस प्रकार संवेगरंगशाला में विभिन्न निमित्तों का उल्लेख करते हुए रोगी एवं निरोगी के मृत्युकाल का वर्णन किया गया है । " जिस स्वप्न में मंगल विवाह, हास्यादि क्रिया होती हो, स्वप्न में मिठाई आदि भोजन ग्रहण करने के पश्चात् उल्टी या विरेचन हो, सोना, चांदी, लोहा, आदि धातु की प्राप्ति हो एवं स्वप्न में लड़ाई-झगड़ा करता हो, देवमंदिर, नक्षत्र, चक्षुप्रदीप अथवा दांत आदि गिरते हों अथवा काले मनुष्य का मुखदर्शन हो तथा रात्रि में भोजन करता हो, तो वह स्वस्थ मनुष्य भी निश्चय से मृत्यु को प्राप्त करता है और रोगी तो अवश्यमेव मरता ही है। 44314 ग्रन्थकार ने स्वप्न के सात प्रकारों का निरूपण किया है, वे निम्न हैं १. देखा हुआ २. सुना हुआ ३. अनुभव किया हुआ ४. वातपित्त, आदि दोष के कारण ५. कालातीतभाव का ६. इच्छित भाव और ७. कर्मों के उदय के कारण, स्वप्नों का आना। 15 इनमें से प्रथम पाँच प्रकार के स्वप्न निष्फल कहे गए हैं एवं अन्तिम दो प्रकार के स्वप्न ही शुभाशुभ फल के सूचक हैं- ऐसा जानना चाहिए। संवेगरंगशाला का स्वप्न सम्बन्धी यह विश्लेषण आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी प्रतीत होता है, क्योंकि उसमें भी स्वप्न के कारणों में दुष्ट, श्रुत, अनुभूत और कल्पित तथ्यों की प्रधानता स्वीकार की गई है। " जो स्वप्न अति लम्बा अथवा अति छोटा हो और प्रथम रात्रि में देखा हुआ हो, तो वह स्वप्न लम्बे समय बाद और तुच्छ फल देने वाला होता है, किन्तु जो स्वप्न अति प्रभात में दिखाई देता है, वह उसी दिन महान् फल को देने वाला होता है। स्वप्नफल के विषय में अन्य मतों का ऐसा मानना है कि रात्रि के प्रथम प्रहर में देखा हुआ स्वप्न एक वर्ष में फल प्रदान करता है, दूसरे प्रहर में देखा हुआ तीन महीने में, तीसरे प्रहर में देखा हुआ दो महीने में, चौथे प्रहर में देखा हुआ एक महीने में फल प्रदान करता है। आगे यह स्पष्ट किया गया है कि यदि प्रथम अनिष्ट स्वप्न को देखकर बाद में इष्ट स्वप्न को देखें, तो उसका फल शुभ होता है तथा पहले शुभ स्वप्न को देखकर फिर अनिष्ट (अशुभ) स्वप्न को देखें, तो उसका फल अशुभ होता है। नमस्कार महामन्त्र का स्मरण करने से एवं तप, 314 संवेगरंगशाला, गाथा ३२०८ - ३२१५. 315 संवेगरंगशाला, गाथा ३२२१. - Jain Education International. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy