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160 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
रूप से यह ज्ञात होता है कि प्राचीनकाल में उपश्रुति के द्वारा मृत्यु-काल को जानने की परम्परा थी।
३. छायाद्वार :- प्रस्तुत कृति के अनुसार आयुष्य की काल मर्यादा जानने के लिए छाया का सम्यकूरूप से निरीक्षण करना होता है। इसमें पुरुष सदैव अपनी छाया को एकाग्र मन से निरीक्षण करता है। फिर शास्त्र के अनुसार "अपनी परछाई से शुभ या अशुभ को जानता है। इसमें सूर्य के प्रकाश में, शीशे में, अथवा पानी आदि में जो शरीर की आकृति गिरती है, उसे प्रतिछाया कहा है। जिसे अपनी छाया में छेदन-भेदन दिखाई दे, अथवा छोटी या बड़ी दिखाई दे, तो वह पुरुष शीघ्र मृत्यु को प्राप्त करता है।" 294 "पानी में अपनी छाया को मस्तकरहित देखे, अथवा अनेक मस्तकवाली देखे, तब वह मृत्यु को प्राप्त करता है। जिसे अपनी छाया दिखाई नहीं दे, तो दस दिन के बाद और दो छाया दिखाई दे, तो एक दिन के बाद, वह मरण को प्राप्त करता है। 295
निमित्तशास्त्र के अनुसार "सूर्योदय से अन्तर्मुहुर्त पश्चात स्थिर चित्त से अपनी परछाई को देखते हुए जिसे अपनी छाया सर्व अंगों से अक्षत दिखाई दे, तो वह कुशलतापूर्वक जीएगा और यदि पैर दिखाई न दे, तो विदेशगमन होगा। दो जंघा नहीं दिखे, तो रोग उत्पन्न होगा। पेट न दिखे, तो धन का नाश होगा और हृदय दिखाई नहीं दे, तो मृत्यु को प्राप्त होगा। 296
इसी तरह यदि "बाई एवं दाईं भुजा नहीं दिखे, तो भाई एवं पुत्र का नाश होगा। मस्तक दिखाई नहीं दे, तो छः महीने में मरण को प्राप्त होगा एवं सर्व अंग दिखाई नहीं दे तो शीघ्र ही मृत्यु होगी- ऐसा जानना चाहिए। जल अथवा दर्पण आदि में यदि अपनी परछाई को नहीं देखे, अथवा विकृत देखे, तो निश्चय ही मृत्यु उसके नजदीक ही है- ऐसा जानना चाहिए।297
इस प्रकार छायाद्वार से हमें यह ज्ञात होता है कि सम्यक् रूप से प्रयत्न करने पर कुशल पुरुष छाया के द्वारा मृत्यु-काल को जान सकता है।
४. नाड़ी-द्वार :- संवेगरंगशाला में नाड़ी-द्वार का वर्णन करते हुए ग्रन्थकार कहता है - "नाड़ी तीन प्रकार की होती है - १. ईंडा २. पिंगला और ३. सुषुम्ना। इंडा नाड़ी बाई नासिका भाग से चलती है। पिंगला नाडी दाई
294 संवेगरंगशाला गाथा, ३१०७-३११०. 295 सविंगरंगशाला गाथा, ३११२-३११४.
संवेगरंगशाला गाथा, ३११५-३११८. 297 संवेगरंगशाला गाथा, ३११६-३१२१.
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