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________________ 158 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री इसके पश्चात् अब रोगी के मृत्युकाल का वर्णन करते हुए कहते हैं - “यदि कुत्ता अपने दाईं ओर मुख मरोड़कर अपनी पीठ को चाटता है, तो रोगी एक ही दिन में मृत्यु को प्राप्त होता है, यदि छाती को चाटता है, तो रोगी दो दिन में और यदि पूंछ को चाटता है, तो तीन दिन में रोगी के प्राण चले जाते हैं।"285 इस सम्बन्ध में श्वान-शकुन के ज्ञाता यह निर्देश करते हैं कि यदि कुत्ता निमित्तकाल के समय ही सर्व अंगों को सिकोड़कर सो रहा हो, तो समझना कि रोगी उसी समय मरणावस्था को प्राप्त करेगा। “यदि कुत्ता अपने दोनों कानों को जोर से हिलाकर एवं शरीर को मरोड़कर कंपकंपी करे, तब भी रोगी अवश्य गृत्यु को प्राप्त होता है। इसी तरह यदि वह खुले मुख से लार टपकाता हुआ, दोनों आँखों को बन्द करके एकदम सिकुड़कर सो जाता है, तो उस रोगी की मृत्यु अवश्य होती है।"286 अन्त में यह भी वर्णित किया गया है- "रोगी के घर के ऊपर तीनों संध्या में कौओं के समूह को एकत्रित होते देखें, तो जीव का विनाश होता है। जिसके शयनकक्ष में, अथवा रसोईघर में कौआ चमड़ा, रस्सी, बाल या हड्डी, आदि डाल जाता है, तो वह रोगी मृत्युशय्या में सो जाता है।"287 योगशास्त्र में भी यही बात शकुनद्वार में मिलती है।288 इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि संवेगरंगशाला के अनुसार रोगी (पुरुष) अथवा निरोगी पुरुष की मृत्यु का ज्ञान शकुनों की सहायता से प्राप्त हो सकता है, क्योंकि घर में जीवों की वृद्धि को जानकर या कुत्ते एवं कौए की क्रिया को देखकर प्रत्येक व्यक्ति मृत्यु के काल का अंदाजा लगा सकता है। २. उपश्रुतिद्वार :- संवेगरंगशाला के अनुसार उपश्रुति, अर्थात् शब्द-श्रवण। संवेगरंगशाला में ग्रन्थकार ने उसके उपश्रुति-द्वार में आयुष्य का निर्णय करते हुए यह निरूपण किया है कि “सर्वप्रथम रात्रि के समय आचार्य अपने दोनों कानों को नमस्कारमंत्र अथवा सूरिमंत्र से मंत्रित करे, उसके पश्चात् श्वेत वस्त्र पहनकर हाथ में गन्ध, अक्षत, आदि लेकर, कानों में किसी अन्य के शब्द सुनाई नहीं दे, इसलिए कान बन्द करके, घर से बाहर निकले। इस तरह वह क्रमशः उत्तरदिशा, ईशानदिशा की तरफ जाए। वहाँ चाण्डाल, वेश्या, अथवा शिल्पकार आदि के स्थान पर, अथवा बाजार में जाकर उन अक्षतों एवं गन्ध को 285 संवेगरंगशाला, गाथा ३०८१-३०८२. 286 विंगरंगशाला, गाथा ३०८४-३०८५. संवैगरंगशाला, गाथा ३०८६-३०८७. 288 योगशास्त्र, गाथा १७७-१८७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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