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124 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री कमों को तपाकर नष्ट किया जाए, उसे तप कहते हैं। तप के दो भेद हैं- १. बाह्य तप एवं २. आभ्यन्तर-तप। बाह्य तप के अनशन, उनोदरी, आदि छः भेद है एवं आभ्यन्तर तप के प्रायश्चित्त, विनय, आदि छ: भेद होते हैं। कुल मिलाकर तप के बारह भेद किए गए हैं। इनका विवेचन आगे किया गया है। संवेगरंगशाला में कहा गया है कि मुनि को अपनी शक्ति छिपाए बिना बाह्य एवं आभ्यन्तर-तप करना चाहिए तथा जो अपनी शक्ति छिपाता है, वह माया-कषाय, एवं वीर्यान्तराय-कर्म का बन्ध करता है तथा जो सुखशीलता, प्रमाद एवं देहासक्ति के कारण तप नहीं करता है, वह क्रमशः माया के करण मोहनीयकर्म, सुखशीलता के कारण अशातावेदनीयकर्म और प्रमाद के कारण चारित्रमोहनीयकर्म का बन्ध करता है। पुनः, देहासक्ति से परिग्रह-दोष उत्पन्न होता है। इस तरह यथाशक्ति तप नहीं करने वालों को ये दोष लगते हैं एवं तप करने वालों को इस लोक और परलोक में गुणों की प्राप्ति होती है। संसार में कल्याण, ऋद्धि, सुख, आदि के साथ जो मानवीय जीवन, दैवीय-जीवन और मोक्ष का सुख मिलता है, वह भी तप से ही प्राप्त होता है। इस प्रकार पापरूपी पर्वत तोड़ने में वज्र के दण्डसदृश, कामरूपी हाथी को नाश करने में भयंकर सिंह के समान एवं भवसमुद्र को पार उतरने के लिए नौका के तुल्य श्रेष्ट मात्र तप को ही कहा गया है, इस तरह हे मुनि! तू गुणों के भण्डारस्वरूप तप को जानकर मन की इच्छाओं को रोककर, उत्साहपूर्वक यथाशक्ति तप में प्रवृत्ति कर। 199 ६. संयम :
सर्व सावद्य व्यापारों से निवृत्त होना संयम-धर्म है। संयम सत्तरह प्रकार के हैं- पाँच-आश्रव से निवृत्ति, पाँच इन्द्रियों का निग्रह, चार कषायों पर विजय तथा मन-वचन-काया की अशुभ प्रवृत्ति से विरक्ति। समवायांगसूत्र में संयम के निम्न सत्तरह प्रकार बताए गए हैं। १. पृथ्वीकाय-संयम २. अपकाय-संयम ३. तेजस्काय-संयम ४. वायुकाय-संयम ५. वनस्पतिकाय-संयम ६. द्वीन्द्रिय-संयम ७. त्रीन्द्रिय-संयम ८. चतुरिन्द्रिय-संयम ६. पंचेन्द्रिय-संयम १०. अजीवकाय-संयम ११. प्रेक्षा-संयम १२. उपेक्षा-संयम १३. अपहृत्य-संयम १४. प्रमार्जना-संयम १५. मन-संयम १६. वचन-संयम एवं १७. काय-संयम। जिस प्रकार कर्मों की निर्जरा के लिए तप-धर्म की आराधना करना अनिवार्य होता है, उसी प्रकार भावी कों के आस्रवों के निरोध हेतु संयम-धर्म की साधना भी आवश्यक होती है।
199 संवेगरंगशाला, गाथा - ६११६/६१२७. 200 समवायांगसूत्र - अष्टादश स्थानक १२५, पृ. ५६.
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