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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 123 अभिमान करता है, उससे उस वस्तु की प्राप्ति में कमी हो जाती है, जैसे- ज्ञान का घमण्ड करने से मूर्खता और रूप का अभिमान करने से कुरूपता मिलती है, इसीलिए अभिमान करना योग्य नहीं है। 196 उत्तराध्ययनसूत्र एवं दशवैकालिकसूत्र विवेचन उपलब्ध होता है। ३. आर्जव : माया, छल, कपट, वक्रता का त्याग करना तथा सरल वृत्ति रखना आर्जव-धर्म है। आर्जव-धर्म का पालन करने से मन, वचन, काय की कथनी-करनी में समानता की प्राप्ति होती है। जब व्यक्ति का मन माया, छल, कपट, आदि में उलझता रहता है, तो वह मूढात्मा अपनी काया की छाया में ही सुख को खोजने लगता है, अतः शाश्वत सुख प्राप्त करने के लिए कथनी व करनी में सरलता व एकरूपता जरूरी है। 197 बौद्ध दर्शन में ऋजुता को कुशलधर्म कहा गया है। 'अंगुत्तरनिकाय' में कहा गया है कि माया या शठता दुर्गति का कारण है जबकि ऋजुता, सुख, सुगति, स्वर्ग और मोक्ष का कारण है। 198 में विनय धर्म का विस्तृत ४. मुक्ति : लोभ को जीतना, यानी निर्लोभता ही मुक्ति है। यह पौद्गलिक वस्तुओं की आसक्ति का त्याग करना है। इस धर्म का पालन करने से अपरिग्रहत्व की प्राप्ति होती है। कुछ ग्रन्थों में मुक्ति-धर्म के स्थान पर शौच, लाघव, आदि नाम भी मिलते हैं। लोभ पापों का मूल है। लोभ से जीव की बुद्धि बिगड़ती है और इससे वह अनर्थ - कार्य करता है। हिंसा, असत्य भाषण, चोरी, आदि पाप-प्रवृत्ति करना लोभ का ही परिणाम है, अतः जीवों को सन्तोषरूपी धन को धारण कर सुखी जीवन जीना चाहिए। आकिंचन्यभाव को मुक्ति का फल कहा गया है। ५. तप : 196 १/४५. उत्तराध्ययन सूत्र 197 दशैवकालिकसूत्र अंगुत्तरनिकाय - २ / १५, १७ ८/३६. 198 कर्मों से विमुक्ति प्राप्त करने के लिए जो धर्माराधना की जाती है, वह तप है, अर्थात् जिस (धार्मिक) अनुष्ठान द्वारा शारीरिक विकारों और ज्ञानावरणादि Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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