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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 91
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घर, धनधान्य की रक्षा तथा शरीर-पालन प्रभृति प्रवृत्तियां करता है। उन प्रवृत्तियों में आरम्भ द्वारा प्राणियों का जो उपमर्दन होता है, वह अनर्थदण्ड है। दण्ड, निग्रह, यातना और विनाश- ये चारों शब्द एकार्थक हैं। अर्थदण्ड के विपरीत निष्प्रयोजन निरर्थक प्राणियों का विघात करना अनर्थदण्ड है।
आचार्य समन्तभद्र ११ ने अनर्थदण्डरूप प्रवृत्तियों के निम्न पाँच आधार-स्तम्भ बताए हैं- १. पापोपदेश २. हिंसादान ३. अपध्यान ४. प्रमादचर्या और ५. दुःश्रुति। इस गुणव्रत के पाँच अतिचार :१. कंदर्प - कामवासना को उत्तेजित करने वाली चेष्टाएँ करना।
कौत्कुच्य - हाथ, मुँह, आँख, आदि से अभद्र चेष्टाएँ करना।
मौखर्य - वाचाल बनना, बढ़ा-चढ़ाकर बातें करना, अपनी शेखी बघारना।
४. संयुक्ताधिकरण - अनावश्यक रूप से हिंसा के साधनों का संग्रह करना और उन्हें दूसरों को देना।।
५. उपभोग-परिभोगातिरेक - आवश्यकता से अधिक उपभोग की सामग्री का संचय करना।
इस तरह अनर्थदण्ड-विरमण-व्रत और उसके दोषों के सन्दर्भ में चिन्तन करते हैं, तो वर्तमान युग में इसकी सार्थकता स्पष्ट हो जाती है। मानव-समाज में आज भी ये सभी चारित्रिक-विकृतियाँ विद्यमान हैं, अतः इन विकृतियों का परिमार्जन इस व्रत को ग्रहण करने से होता है, क्योंकि इस व्रत से श्रावक की मानसिक, वाचिक और कायिक- सभी प्रवृत्तियाँ विशुद्ध होती हैं, जिससे श्रावक सामायिक आदि सभी शिक्षाव्रतों का सम्यक् प्रकार से पालन कर सकता है। शिक्षाव्रत :- शिक्षा का अर्थ अभ्यास है। जिस प्रकार विद्यार्थी पुनः-पुनः अभ्यास करता है, उसी प्रकार श्रावक को जिन व्रतों का पुनः-पुनः अभ्यास करना चाहिए, उन व्रतों को शिक्षाव्रत कहा गया है। अणुव्रत और गुणव्रत जीवन में एक ही बार ग्रहण किए जाते हैं, किन्तु शिक्षाव्रत बार-बार ग्रहण किए जाते हैं। वे व्रत कुछ समय के लिए ही होते हैं। उनके नाम निम्न हैं
9 अर्थेन प्रयोजनेन दण्डोऽर्थदण्डः। - उपासकदशांग- टीका
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