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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 67 समान है एवं ज्ञान के बिना की गई धर्म - क्रिया को जन्मान्ध व्यक्ति के द्वारा नाटक देखने की क्रिया के समान निरर्थक कहा गया है। 64 प्रस्तुत विषय में ज्ञान नय और क्रिया-नय का उल्लेख करते हुए यह कहा गया है कि जो कार्य में रुचि रखता है, उसे ग्रहण - शिक्षा से हेय उपादेय के अर्थ को सम्यक् रूप से जानकर उसके बाद ही कार्य में प्रवृत्ति करना चाहिए, अन्यथा कार्य के परिणाम में विपरीतता आ सकती है, चूँकि मिथ्याज्ञान से प्रवृत्ति करने वाले को विपरीत फल की प्राप्ति होती है, इसलिए सम्यग्ज्ञान को ही फल प्राप्ति का हेतु कहा गया है, क्रिया को नहीं। जिनेश्वर भगवान् ने कहा है कि “प्रथम ज्ञान, फिर दया (क्रिया), ” क्योंकि संसार समुद्र से पार उतरने वाले अरिहंतदेव को भी तब तक मोक्ष नहीं होता, जब तक उन्हें केवलज्ञान प्रकट नहीं हो जाता, इसीलिए ग्रहण शिक्षा को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करना चाहिए । इस सम्बन्ध में इन्द्रदत्त के अज्ञपुत्रों एवं सुरेन्द्रदत्त की कथा वर्णित है । " 65 २. आसेवन - शिक्षा : संवेगरंगशाला के तीसरे शिक्षाद्वार में आसेवन - शिक्षा का महत्व बताते हुए कहा गया है कि जैसे जंगल में उत्पन्न हुए मालती के पुष्प और विधवा के रूप आदि गुण समूह निष्फल होते हैं, वैसे ही आसेवन - शिक्षा के बिना ग्रहण - शिक्षा भी निष्फल होती है, क्योंकि आसेवन - शिक्षा, अर्थात् जिन - आज्ञा का सम्यक् रूप से आचरण करने वाले की ही ग्रहण - शिक्षा फलदायक होती है। साधक को शिक्षा की प्राप्ति विनयपूर्वक गुरु की सेवा करने से, मन से सभी व्याक्षेपों का त्याग करने से, प्रतिपृच्छा आदि बुद्धि के आठों गुणों के प्रयोग करने से तथा गृहीतज्ञान का आचरण करने से ही होती है और इससे ग्रहण शिक्षा उत्कृष्टता को प्राप्त होती है। 66 ग्रहण - शिक्षा में भी सर्वप्रथम विनय प्रतिपत्तिरूप आसेवन, अर्थात् आचरण - शिक्षा होती है। आसेवन- शिक्षा में ग्रहण - शिक्षा का मन-वचन-काया से आचरण किया जाता है, तभी ज्ञान में वृद्धि होती है और मन स्थिर रहता है। ग्रहण - शिक्षा भी आसेवन - शिक्षा के अभाव में प्रायः पूरी नहीं हो पाती है, इसलिए आसेवन - शिक्षा में उद्यम करना साधक के लिए जरूरी है। इस विषय में क्रियानय का कहना है कि जिस कार्य में रुचि हो, उसमें सम्यक् उद्यम करना चाहिए तथा हेय और उपादेय अर्थ को जानकर अभीष्ट फल 64 संवेगरंगशाला गाथा, १३४८ - १३५१. 65 संवेगरंगशाला, गाथा १३५१ - १३६४. 66 संवेगरंगशाला, गाथा १४२४ - १३३१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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