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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 65 गृहस्थ और मुनि-जीवन के लिए सामान्य शिक्षा __संवेगरंगशाला के शिक्षा नामक तीसरे द्वार में आराधक-गृहस्थ एवं आराधक-साधु को दी जाने वाली शिक्षाओं का उल्लेख करके उनके सामान्य और विशेष आचार-धर्म का विवेचन किया गया है। इसमें १. ग्रहण शिक्षा २. आसेवन-शिक्षा और ३. तदुभय-शिक्षा- इस तरह शिक्षा के तीन भेदों का विस्तार से वर्णन किया गया है, जो इस प्रकार है - १. ग्रहण-शिक्षा : ग्रहण-शिक्षा का तात्पर्य है - मुनि एवं गृहस्थ को जिन बातों का ज्ञान आवश्यक है, उन्हें जानना। संवेगरंगशाला के प्रस्तुत द्वार में श्रुतज्ञान के अभ्यासरूप शिक्षा को ग्रहण-शिक्षा कहा गया है। आगे यह कहा गया है कि जघन्यतः साधु को अष्ट प्रवचनमाता, अर्थात् पाँच समिति और तीन गुप्ति का ज्ञान होना चाहिए तथा उत्कृष्टतः साधु को बिन्दुसार नामक चौदहवें पूर्व तक का ज्ञान होना चाहिए और गृहस्थ को भी जघन्यतः अष्ट प्रवचनमाता तथा उत्कृष्टतः दशवैकालिकसूत्र के छज्जीवनिकाय नामक चौथे अध्ययन और पिंडेषणा नामक पाँचवें अध्ययन के अर्थ का ज्ञान होना चाहिए, क्योंकि गृहस्थ अष्ट प्रवचनमाता के ज्ञान के बिना सामायिक नहीं कर सकता है तथा छज्जीवनिकाय नामक अध्ययन का ज्ञान नहीं होने से जीवों की रक्षा नहीं कर सकता है एवं पिंडेषणा नामक अध्ययन के अर्थ को जाने बिना वह साधु को प्रासुक आहार नहीं दे सकता है। प्रस्तुत द्वार में ग्रहण-शिक्षा से जिन गुणों की प्राप्ति होती है, उनका वर्णन करते हुए बताया गया है कि ग्रहण-शिक्षा संसार को पार करने में नौका के सदृश है। इससे पुण्यानुबन्धी पुण्य का बन्ध होता है और प्रशस्त गुणों की प्राप्ति होती है। इस तरह पहले जिनवचनरूपी सूत्रों का गहन अध्ययन करना चाहिए, उसके पश्चात् सद्गुरु के पास उन सूत्रों के अर्थ को सुनकर उनका जीवनपर्यन्त चिन्तन-मनन करना चाहिए। संवेगरंगशाला के प्रस्तुत द्वार में श्रुतज्ञान से कौन-कौन से लाभ होते हैं, उनका दिग्दर्शन कराया गया है। श्रुतज्ञान के अध्ययन से आराधक जीव-अजीव आदि नव-तत्वों को जानने वाला बनता है, साथ ही आभ्यन्तररूप बारह प्रकार के तप का भी ज्ञान होने लगता है और बारह प्रकार की भावनाओं (अनुप्रेक्षाओं) को 7 गहणाऽऽसेवणतदुभय भेएहिं सा भवे तिहा तत्था नाणब्भाससरुवा, सिक्खावुच्चइ गहणसिक्खा।। संवेगरंगशाला, गाथा १३२५. 60 संवेगरंगशाला, गाथा १३२५-१३३० 61 संवेगरंगशाला, गाथा १३३५-१३४३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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