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________________ जैन दर्शन के नव तत्त्व किसी बड़े दीवानखाने में रखने पर उसका प्रकाश दीवानखाने जितना फैलता है। अर्थात् दीपक की वृद्धि या क्षय नहीं होता, दीपक जितना था उतना ही रहता है, उसी प्रकार शरीर का प्रमाण छोटा हो या बड़ा आत्मा शरीर के आकार अनुसार ही व्यापक रहता है, उसकी वृद्धि या क्षय नहीं होता। के ४१ जीवाजीवाभिगम या जीवाभिगम जैन आगम का तीसरा उपांग है। इसमें महावीर और गौतम गणधर के प्रश्नोत्तर के रूप में जीव और अजीव इनके भेद-प्रभेद का विस्तृत वर्णन है । जिज्ञासु उसका अनुशीलन कर सकते हैं। जीव और कर्म जीव और कर्म का अनादि संबंध एक गृहीत तत्त्व है। इसी संबंध से संसार की समस्त बातों का कारणकार्यभाव स्पष्ट हो जाता है। जैन-धर्म के अनुसार कर्म अत्यंत सूक्ष्म पुद्गल पर्याय है और संपूर्ण लोक उससे व्याप्त है। प्रत्येक जीव की मानसिक, वाचिक और कायिक क्रियाओं से आत्मा में एक प्रकार का स्पन्दन होता है। यह स्पन्दन शुभ होने पर पुण्य कर्म का बंध होता है और अशुभ होने पर पाप कर्म का बन्ध होता है । स्पन्दन - होने पर बंध होता ही नहीं है। क्रोध, मान, माया और लोभ इन कषायों से कर्मबंध का स्वरूप निश्चित होता है । जीव और कर्म का परस्पर संबंध जैन - शास्त्र का मुख्य विषय है। जीव के अनेक भेद हैं। उनमें 'निगोद' नामक एक अत्यंत सूक्ष्म प्रकार है । अत्यंत सूक्ष्म और सामूहिक जीवतत्त्व से मुक्त जीव तक जीव के अनेक भेद होते हैं । उसी प्रकार शुद्धि के मार्ग पर चलने वाले जीवों में अलग-अलग स्तर भी होते हैं। इन्हें 'गुणस्थान' कहते हैं। अलग-अलग गुणस्थानों में जीव का स्वरूप, धर्माचरण करने की शक्ति और आत्मनिष्ठ विचारों का बल निरन्तर बढ़ता जाता है, और अन्तिम गुणस्थान में जीव कर्म से और कर्म - कारणों से पूर्णतया मुक्त हो जाता है । जैसे जीव के भेद हैं वैसे ही कर्म के भी अलग-अलग भेद हैं। जैसे कर्म के ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय-ये आठ भेद है, वैसे ही प्रत्येक की कालमर्यादा (स्थिति), फल देने की शक्ति ( अनुभाग ) और विस्तार या प्रमाण ( प्रदेश ) भी अलग-अलग हैं । जैसे दुष्प्रवृत्ति से कर्म का बंध होता है, वैसे ही सत्प्रवृत्ति और संयम से कर्म का आगमन कम होकर उसका बंध शिथिल भी हो जाता है। तपश्चर्या के द्वारा अवशिष्ट कर्मों का नाश किया जा सकता है। इस संसार के सुख-दुःख और परलोक के जन्म का स्वरूप और वहाँ के सुख-दुःख पूर्णतः कर्म के ही फल हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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