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जैन दर्शन के नव तत्त्व
इसी प्रकार जीव भी दीपक के समान संकोचशील और विस्तारशील है । इसलिए जीव जब छोटे-मोटे शरीर को धारण करता है तब देह के परिमाण के अनुसार संकुचित और विस्तृत होता है ।
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बृहद्रव्यसंग्रह में देह के समान जीव का निरूपण करते हुए कहा गया है कि व्यवहारनय से समुद्घात अवस्था के बिना यह जीव संकोच और विस्तार से छोटे-बड़े शरीर के अनुसार रहता है और निश्चयनय से जीव असंख्यात प्रदेश का धारक बनता है । ३
व्याख्याप्रज्ञप्ति के सातवें शतक के आठवें उद्देशक में भगवान् महावीर ने कहा है कि हाथी और कुंथु ( अतिसूक्ष्म कीट) का जीव एक जैसा है।
आचार्य नेमिचन्द्र ने द्रव्यसंग्रह में देह - प्रमाण का निम्न प्रकार से उल्लेख
किया है
जीव उपयोगरूप है, अमूर्त है, कर्ता है, देहप्रमाण है, भोक्ता है, सिद्ध है और स्वभाव से ऊर्ध्वगमन करने वाला है।
जीव में रूप, रस, गंध और स्पर्श ये चार पुद्गल के धर्म नहीं हैं, इसलिए जीव स्वभाव से अमूर्त है। प्रदेश में जीव संकोचशील और विस्तारशील होता है इसलिए जीव छोटे-बड़े शरीरों के अनुसार देहप्रमाण होता है।
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आत्मा के आकार के संबंध में भारतीय दर्शन में मुख्यतः तीन मत दिखाई देते हैं। श्वेताश्वतर उपनिषद् में आत्मा के (१) सर्वगत या व्यापक (२) अंगुष्ठमात्र और (३) अणुरूप होने का उल्लेख है । ६
नाम,
जो जीव संज्ञी होते हैं वे समनस्क हैं। संज्ञा के विविध अर्थ हैं इच्छा, सम्यग्ज्ञान आदि । जैन दर्शन के अनुसार आहार, भय, मैथुन और परिग्रह को संज्ञा कहा गया है । परन्तु यहाँ संप्रधारण संज्ञा की दृष्टि से जो जीव संज्ञा को धारण करने वाले हैं, उन्हें समनस्क कहते हैं ।
जैनदर्शन मानता है कि जीवात्मा देह के आकार के समान बड़ा परन्तु देह से भिन्न है। आत्मा देह के बड़े होने के साथ बढ़ने वाला और क्षय होने के साथ क्षीण होने वाला है। जीवात्मा की वृद्धि होती है इसलिए वह परिणामी - नित्य है, कूटस्थ- 1 - नित्य नहीं ।
श्री जोग का यह प्रतिपादन उचित नहीं है। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा की वृद्धि या क्षय कभी नहीं होता। जिस प्रकार किसी दीपक को छोटे कमरे में रखने पर उसका प्रकाश उस कमरे जितना ही फैलता है, परन्तु उसी दीपक को
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