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________________ ४१६ जैन-दर्शन के नव तत्त्व जीव इस संसार में मदारी के समान करतब दिखाता रहता है, कभी वह मनुष्य बनता है, कभी पशु। जीव, अजीव की यह विचित्र दशा संसार परिभ्रमण का कारण होती है। कर्म के आगमन को “आस्रव" कहते है और कर्म के आत्मा के साथ बद्ध होने को बंध कहा है। ये दोनों संसार के कारण माने गये है। संवर और निर्जरा ये जीव का विशेष स्वरूप प्रकट करने के साधन है। अंतिम मोक्ष यह जीव रूप ही होता है क्यों कि जीव ही परमात्म स्वरूप प्राप्त करता है, उसी को ही हम मोक्ष, निर्वाण, मुक्ति, अपवर्ग, कैवल्य आदि नाम देते है। परन्तु ऐसा बार-बार विचार करने पर भी 'मुक्त कौन' ? यह प्रश्न शेष रहता ही है, सचमुच जिसने आत्म स्वरूप को अर्थात् सम्यग्झान-दर्शनादि गुणों को पूर्णतः प्रकट कर लिया है। वही मुक्त जीव है। ज्ञान, दर्शन यह जीव का स्वभाव है, जड़ता यह अजीव का स्वभाव है, जीव जब अपने स्वरूप को अच्छी तरह समझ लेता है तब उसे सच्चे आत्म स्वरूप का ज्ञान होता है आखिर मैं कौन हूँ? मैं चैतन्य स्वभावी ज्ञानी आत्मा हूँ मेरे इन ज्ञान, दर्शन आदि आत्म गुणों के विकास होने पर मोक्ष प्राप्त होगा। इस सम्बन्ध में ऐसा कहा जा सकता है कि जब व्यक्ति अपूर्णता से पूर्णता की ओर बढ़ता है, तब उसे अलौकिक आनन्द की अनुभूति होने लगती है, परन्तु इस दुःख निवृत्ति के लिये ज्ञान, दर्शन और चारित्र ये इस जीव को आत्मा से परमात्म पद पर अधिष्ठित करने वाले साधन है। 'अप्पा सो परमप्पा' अर्थात् आत्मा ही परमात्मा है। सच्चे आत्म स्वरूप को पहचानने के लिये जीव के विकारी अंग-उपांगों को जानना आवश्यक है। इस संबंध में नवतत्त्वों का आधार लेना आवश्यक है। इन नवतत्त्वों में संसारी जीव को संसार परिभ्रमण से मुक्त होने के उपाय दिखाये गये हैं। सबका ध्येय एक होने पर भी किस मार्ग से जाने पर वह इच्छित फल मिलेगा और किस मार्ग से जाने पर वह नहीं मिलेगा यह सत्य बहुत ही थोड़े लोगों की समझ में आता है। किन्तु जो इन नवतत्त्वों को ठीक से जान लेता है, समझ लेता है वह सर्वोच्च अवस्था तक पहुँच सकता है। जीव स्वतंत्र है और वे अनेक है। देह भेद से भिन्न-भिन्न और अनन्त है। ज्ञानशक्ति, पुरुषार्थ और संकल्प शक्ति ये जीव की मुख्य शक्तियाँ है। जीव जैसे विचार करता है वैसे उस पर संस्कार होते है और इन संस्कारों की छाप वाले एक सूक्ष्म पौद्गलिक शरीर का निर्माण होता है और दूसरा देह धारण करते समय यह संस्कार शरीर या कर्म शरीर जीव के साथ रहता है। ऐसा जैनियों का मत है। स्थूल शरीर के विच्छिन्न होने पर यह सूक्ष्म शरीर ही नवीन स्थूल शरीर की रचना करता है।६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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