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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
जिस प्रकार आकाश अमूर्त है फिर भी वह अवगाहन गुण के कारण जाना जाता है, उसी प्रकार जीव अमूर्त है, फिर भी वह ज्ञानादि गुणों के द्वारा जाना जाता है। जिस प्रकार काल अनादि है, अविनाशी है, उसी प्रकार जीव अनादि और अविनाशी हैं। जिस प्रकार पृथ्वी सब वस्तुओं का आधार है, उसी प्रकार जीव ज्ञान, दर्शन आदि का आधार है।
सुवर्ण से हार, मुकुट, कुण्डल, अंगूठी आदि अलंकार बनते हैं, फिर भी वह सुवर्ण ही रहता है। सिर्फ नाम रूप में फर्क पड़ता है। उसी प्रकार चारों गतियों और चौरासी (८४) लाख जीव योनियों में परिभ्रमण करते समय जीव के पर्याय परिवर्तित होते है, जीव का रूप और नाम बदलता है, लेकिन जीवद्रव्य हमेशा एक ही रहता है। केशर, कस्तुरी, कमल, केतकी आदि की सुगन्ध का रूप आँखों को दिखाई नहीं देता, परन्तु घ्राणेन्द्रिय द्वारा उसका ग्रहण होता रहता है। उसी प्रकार जीव दिखाई नहीं देता फिर भी ज्ञानादि गुणों के द्वारा उसका ग्रहण होता है। वाद्य यन्त्रों के द्वारा शब्द सुनाए जाते है, परन्तु उनका रूप दिखाई नहीं देता, उसी प्रकार जीव दिखाई न देने पर भी उसका ज्ञानादि गुणों के द्वारा ग्रहण होता है। जीव अनेकानेक शक्तियों का पुंज है उसमें मुख्य शक्तियाँ है - ज्ञानशक्ति, वीर्यशक्ति, संकल्पशक्ति। विश्व में, लोक में ऐसा एक भी स्थान नहीं है, जहाँ सूक्ष्म या स्थूल शरीरी जीव का अस्तित्व नहीं है।
जिस प्रकार सुवर्ण और मिट्टी इनका संयोग अनादि है, उसी प्रकार जीव और कर्म इनका संयोग भी अनादि है। अग्नि से तपाकर सोना मिट्टी से विभक्त किया जा सकता है, उसी प्रकार जीव भी संवर, तपस्या आदि द्वारा कमों से विभक्त किया जाता है।
जिस प्रकार आकाश तीनों कालों में अक्षय, अनन्त और अतुल है, उसी प्रकार जीव भी तीनों कालों में अक्षय, अनन्त और अतुल है। जिस प्रकार सहस्त्र रश्मि सूर्य, पृथ्वी पर प्रकाशित होता है तब वह दिखाई देता है, लेकिन रात्रि में वह अन्य जगह जाता है, तब उसका प्रकाश दिखाई नहीं देता। उसी प्रकार वर्तमान में शरीर में रहा जीव दिखाई देता है और शरीर को वह छोड़कर जाता है तब दिखाई नहीं देता।
जैन दृष्टि से प्रत्येक शरीर में जीव भिन्न-भिन्न और अनन्त है। जैन दृष्टि से जीव अमूर्त है परन्तु कार्मण आदि शरीर के योग से वह मूर्त सदृश्य बनता है।५.
सुख, दुःख, इच्छा आदि का भाव जब तक शेष रहता है तब तक व्यक्ति आत्म तत्त्व की प्राप्ति कर नहीं सकता।
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