SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 435
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४०८ जैन-दर्शन के नव तत्त्व था। इससे एक. तरफ लोगों की जीवन की ओर देखने की दृष्टि ही बदल गई और दूसरी तरफ से जन्मांतर गमन के संबंध में अनेक मत-मतांतर अस्तित्व में आ गए। उसके पश्चात् कालांतर में निर्मित दार्शनिक साहित्य में इन मत मतांतरों की चर्चा होने लगी। प्रत्येक आस्तिक दर्शन ने स्वतंत्र, चेतन और अविनाशी ऐसा एक तत्त्व मान लिया और उसे ही आत्मा यह नाम दिया है। आत्मा कृतकर्म के फल भोगता है और अपना उद्धार भी कर सकता है, ऐसा माना गया।' न्याय-वैशेषिक दर्शन जीवतत्व : न्याय वैशेषिक दर्शन में आत्मा को एक द्रव्य माना गया है। आत्मा नित्य है, उसका निवास प्रत्येक शरीर में है। प्राणापान, निमेषोन्मेष, चेतना जीवन आदि प्रमाणों से उन्होंने आत्मा की सिद्धि की है। आत्मा एक नहीं है, अपितु अनेक है और प्रति शरीर में भिन्न-भिन्न आत्मा है। आत्मा नित्य है और बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा आदि गुण उसमें रहते हैं, ऐसा न्याय-वैशेषिक दर्शन ने माना है। न्याय-वैशेषिक दर्शन स्वतंत्र आत्मवादी है। परंतु उनकी आत्मा की अवधारणा एक स्वतंत्र द्रव्य के रूप में है। वे शरीर से भिन्न ऐसे अनंत तथा अनादि आत्मा मानते हैं। वे आत्म द्रव्य को अनेक गुणों का या धमों का आश्रय मानते हैं। वे आत्म तत्त्व में ज्ञान, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, धर्म, अधर्म आदि गुण मानते हैं। वे आत्मा को सहज चेतनारूप नहीं मानते, किन्तु शरीर दशा में ज्ञान आदि गुणयुक्त मानते हैं। उनके अभिमतानुसार मुक्त आत्मा आकाश-कल्प बनता है। इसमें अंतर इतना ही है कि आकाश अमूर्त होकर भी भौतिक मान लिया गया है। जबकि आत्म द्रव्य अमूर्त और अभौतिक है। आकाश एक द्रव्य है, किंतु आत्माएँ अनंत है। उनका कथन यह है कि जब तक शरीर है तब तक ज्ञान, इच्छा प्रभृति गुणों का उत्पाद-विनाश होता रहता है और उसी के साथ कर्तृत्व-भोक्तृत्व गुण भी रहता है। परंतु मुक्त दशा में किसी भी प्रकार का कर्तृत्व-भोक्तृत्व बाकी नहीं रहता। उनके मन्तव्य के अनुसार आत्मतत्त्व में कर्तत्व-भोक्तृत्व भी भिन्न प्रकार का हैं। वे आत्मा को कूटस्थनित्य मानते हैं। किन्तु जब शरीर दशा में ज्ञान, इच्छा, प्रयत्न आदि गुण होते हैं, तब आत्मा कर्ता और भोक्ता होता है। परंतु इन गुणों का सर्वथा अभाव होने पर मुक्तदशा में किसी भी प्रकार का कर्तृत्व-भोक्तृत्व नहीं रहता, ऐसा वे कहते हैं। शुभ-अशुभ या शुद्ध-अशुद्ध वृत्तियों से जीव में संस्कार आते हैं। उन संस्कारों को ग्रहण करने वाला एक परमाणुरूप मन हैं। आत्मा व्यापक होने से गमनागमन नहीं कर सकता, परंतु प्रत्येक जीव के साथ एक-एक परमाणुरूप मन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy