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________________ अध्याय दसवॉ उपसंहार (१) जीव तत्त्व : ___भारतीय दर्शन आध्यात्मिक दर्शन हैं। चार्वाक के अतिरिक्त सभी भारतीय दर्शनों ने जीव का अस्तित्व मान लिया है। इसका अर्थ यह हुआ कि भारतीय दर्शन प्रायः आत्मवादी है। प्राचीन काल से ही भारतीय ऋषि-मुनियों ने आत्मा के संबंध में चिन्तन, मनन किया है। आत्मा के स्वरूप की पहचान कर लेना यही उन्होंने अपने जीवन का ध्येय माना है। जैन तत्त्वज्ञान में प्रायः जीव और आत्मा पर्यायवाची माने गये हैं। अलग-अलग दर्शनों ने आत्मा के स्वरूप की अलग-अलग व्याख्याएँ की हैं। उपनिषदों में ब्रह्म सम्बन्धी विचार मिलते है। जीव के संबंध में सबसे प्राचीन विचार 'भूत-चैतन्यवाद' के रूप में मिलता है। पृथिव्यादि चार भूतों के संयोग से मानवी शरीर उत्पन्न होता है और यह शरीर ही आत्मा या जीव है। उपनिषदों, जैनागमों और बौद्धपिटक साहित्य में इस मत का पूर्वपक्ष के रूप में उल्लेख किया गया है। बृहदारण्यक में कथन है कि विज्ञानधन चैतन्य आत्मा पंचभूतों से उत्पन्न होता है और उन्हीं में विलीन हो जाता है। इस मत को पूर्वपक्ष के रूप में रखकर बाद में उसका खंडन किया है। बौद्धपिटक में अजित केशकंबली के मत को प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि यह पुरुष चार भूतों से उत्पन्न होता है। भूतचैतन्यवाद के समान ही प्राचीन काल में 'तज्जीवतच्छरीरवाद' नामक एक और वाद अस्तित्व में था। सूत्रकृतांग के पुंडरिक अध्ययन में इस मत का स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि जिस प्रकार म्यान से तलवार अलग निकालकर दिखाई जा सकती है, दधि को बिलोकर उसमें से मक्खन अलग निकालकर दिखाया जा सकता है, या तिल से तेल अलग निकाल कर दिखाया जा सकता है, उसी प्रकार शरीर से जीव अलग निकाल कर नहीं दिखाया जा सकता है। इसलिए जो शरीर है, वही जीव है, ऐसा कहना पड़ता है। तज्जीव-तच्छरीरवाद का प्रारंभ किसने और कब किया यह अज्ञात है। इस मत के समर्थक अनेक लोग थे। जो कर्म करता है वही फल भोगता है, इस विचार से पुनर्जन्म और परलोक ये कल्पनाएँ अस्तित्व में आ गई। देहपात के बाद जीव का दूसरा जन्म लेता है या परलोक में जाता है, उसका स्वरूप क्या होता है, एक देह छोड़कर दूसरा देह धारण करने के लिए आत्मा किस प्रकार जाता है, इन प्रश्नों का और इसी प्रकार के अन्य प्रश्नों का विचार उस युग में अनेक दार्शनिक करते थे। इसी के साथ वर्तमान जीवन की अपेक्षा अधिक सुखकारक ऐसा पारलौकिक जीवन किस मार्ग से और किन साधनों से प्राप्त हो सकेगा, इसका भी विचार किया जाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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