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________________ ३८४ जैन दर्शन के नव तत्त्व छह द्रव्यों में जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य ही गतिमान हैं । इनके अलावा कोई भी द्रव्य गतिमान नहीं है। पुद्गल द्रव्य अधोगतिशील है और जीव द्रव्य ऊर्ध्वगतिशील है । यही उनका स्वभाव है । स्वभाव के विरुद्ध गति कर्म आदि के कारण से होती है 1 १८.३ जिस प्रकार मिट्टी के लेप से वजनदार तुंबड़ी पानी में डूब जाती है, परंतु जव मिट्टी का लेप निकल जाता है, तब वह ऊपर आती है, उसी प्रकार हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार, आदि के कर्म-भार से परवश आत्मा संसार में यहाँ-वहाँ भटकता है, परन्तु कर्मबंधन से मुक्त होते ही ऊर्ध्वगमन करता है और लोक के अग्रभाग पर जाकर स्थित हो जाता है। जिस प्रकार ऊपर का छिलका निकलते ही एरंड का बीज ऊपर की ओर जाता है, उसी प्रकार भव प्राप्त कराने वाली गति और नामकर्म का बंधन दूर होते ही मुक्त मनुष्य की स्वाभाविक ऊर्ध्वगति होती है T १६ जिस प्रकार तिरछी बहनेवाली, वायु के अभाव से दीपशिखा स्वाभाविकतया ऊपर की ओर होकर जलती है, उसी प्रकार मुक्तात्मा भी अनेक कर्म-विकारों के अभाव के कारण अपने ऊर्ध्वगति के स्वभाव से ऊपर ही जाता है । ५ १९. बंध और बंध के कारणों का अभाव होने पर आत्मिक विकारा का पूर्ण होना यही मोक्ष है। ज्ञानदर्शन और वीतराग भाव की पराकाष्ठा ही मोक्ष है। ऐसे अनंत सुखमय मोक्ष स्थान पर सिद्ध भगवान वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र इन चार अघाती कर्मों का क्षय होने पर औदारिक, तेजस् और कार्मण इन तीन शरीरों का सर्वथा क्षय करके सीधी अनुगति श्रेणी से एक समय में ज्ञानोपयोग युक्त होकर सिद्ध गति में विराजमान होते हैं और सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होकर सब दुःखों का अंत करते हैं।" १९६ ३) लोकान्त प्राप्ति : सिद्ध कहाँ जाकर रुकते हैं, कहाँ रहते हैं, कहाँ शरीर का त्याग करते है और कहाँ जाकर सिद्ध होते हैं आदि प्रश्न उत्तराध्ययन सूत्र मे पूछे गए हैं। उनके उत्तर इस प्रकार दिए गए हैं सिद्ध लोक की सीमा पर रुकते हैं, अलोक में गति नहीं करते क्योंकि वहाँ गति - सहायक धर्म-द्रव्य का अभाव है। इसलिए अलोकाकाश में सिद्ध आत्मा की गति नहीं होती। इसलिए लोकाकाश पार करके वे अलोकाश में जा नहीं सकते। लोकाग्र भाग पर प्रतिष्टित होते हैं, स्थित होते हैं। मनुष्य लोक में शरीर का त्याग करते हैं और लोकाग्र भाग पर जाकर सिद्ध होते हैं। T १६७ सिद्ध भव प्रपंच से मुक्त होकर श्रेष्ठ गति प्राप्त करते हैं और अनुपम से युक्त होते हैं सुख I Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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