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________________ ३८३ जैन-दर्शन के नव तत्त्व संसार चक्र से बाहर निकलने की उसकी इच्छा नहीं होती। सुसंगति के संस्कार उसमें नहीं होते हैं। संसार के दुःखों से त्रस्त होने पर भी कोल्हू के बैल की तरह जन्म-मृत्यु के फेरे में उसे घूमना पड़ता है। वस्तुतः भवतृष्णा समाप्त होने पर ही मुक्ति प्राप्त होती है।५ जो सब विकल्पों से रहित होकर परम समाधि को प्राप्त करते हैं, वे आनंद का अनुभव करते हैं। वही मोक्ष सुख है। तीनों कालों में मनुष्य, तिर्येच और देवों को जो सुख मिलता है, वह समस्त सुख इकट्ठा करने पर भी सिद्ध के एक क्षण के सुख की बराबरी नहीं कर सकता। लोक में विषयों द्वारा प्राप्त जो सुख है, और स्वर्ग का जो महान सुख है, वह सुख वीतराग के सुख के अनंत हिस्से से बराबरी नहीं कर सकता।६ अमूर्त ऐसे मुक्त जीवों को जन्म-मरण आदि द्वंद्व की बाधाएँ नहीं होती इसलिए सिद्ध अवस्था में वे परम सुखी हैं।७ सिद्ध जीवों को इन्द्रिय जन्य सुख नहीं होता, क्योंकि उनका अनंत ज्ञान और अनंत सुख अतीन्द्रिय है। सिद्धों का सुख संसार के विषयों से अतीत, स्वाधीन और अव्यय है। उस अविनाशी सुख को अव्याबाध भी कहते हैं। जिस अवस्था में इन्द्रियों से भिन्न, केवल बुद्धि द्वारा ग्रहण करने योग्य आत्यन्तिक सुख विद्यमान है, वह मोक्ष है। निरतिशय, अक्षय और अनंत सुख मोक्ष में ही उपलब्ध होता है।" कर्मक्षय के पश्चात् के कार्य : कर्मों का संपूर्ण क्षय होने पर मुक्त जीव लोक के अंत तक उर्ध्व गति करते हैं।७.२ और बाद में एक ही समय में तीन कार्य होते हैं - १) शरीर का वियोग, २) सिद्धमान गति और ३) लोकान्त की प्राप्ति। १) शरीर का वियोग : कर्म पूर्णतया नष्ट होने पर शरीर की वर्तमान अवस्था के लिए कुछ भी कारण शेष नहीं रहता और नवीन शरीर के लिए भी कुछ भी कारण बाकी नहीं रहता। इसलिए वर्तमान शरीर का वियोग होता है और नवीन शरीर उत्पन्न नहीं होता। मोक्ष प्राप्त होने पर जन्म-मरण रहित अवस्था प्राप्त होती है। इस प्रकार कमों का क्षय होने पर मोक्ष की सिद्धि होती है। २) सिद्धमान गति : कमों का अभाव है इसलिए मुक्त आत्मा की गति सिद्धमान गति होती है। सिद्धमान गति यानी ऊर्ध्व दिशा की ओर की गति है। क्योंकि जीव स्वभाव से ऊर्ध्वगामी है, परंतु कमों के कारण जीव कभी अधोगति और तिर्यक गति करता है, परंतु कमों के छूट जाने के कारण जीव अपने स्वभाव के अनुसार ऊर्ध्व-गति करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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