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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
इन आठ अंगों का सम्यक् प्रकार से पालन करने वाला जीव पूर्ण सम्यक्त्व का धारक बनता है। सम्यक्त्वी जीव नरक, तिर्यच, नपुंसक आदि नीच योनि में जन्म नहीं लेता। अतः सम्यक्त्व को दृढ़ बनाना चाहिए।'
जिस प्रकार एक-दो अक्षर अल्पाधिक वाला अशुद्ध मन्त्र विष की वेदना नष्ट नहीं करता उसी प्रकार आठ अंगों से रहित सम्यक्त्व भी संसार का परिभ्रमण नष्ट करने में समर्थ नहीं होता है।" भूतकाल मे जो लोग सिद्ध हुए है
और भविष्य में जो सिद्ध होंगे वे सब सम्यक्त्व के कारण से ही होते है। इस पर से सम्यक्त्व का महत्त्व समझा जा सकता है। सम्यग्दर्शन का स्वरूप :
__ 'तत्त्व' यानी वस्तु का स्वभाव अथवा वस्तु-धर्म है। उससे युक्त जो पदार्थ है उसे तत्त्वार्थ कहते हैं। ऐसे तत्त्वार्थ नौ हैं। उनके बारे में श्रद्धा रखना यही सम्यग्दर्शन है।
___ "दर्शन" शब्द का अर्थ सामान्यतः “देखना" ऐसा है। परन्तु यहाँ दर्शन शब्द का अर्थ 'देखना' न होकर 'श्रद्धान्' ऐसा है। क्योंकि यहाँ मोक्ष मार्ग की चर्चा होने से केवल "देखना" यह अर्थ यहाँ योग्य नहीं है।
'तत्त्व' में 'तत्' और 'त्व' ये दो शब्द हैं। 'तत्' यह अन्य पुरुष वाचक(तृतीय पुरुष वाचक) सर्वनाम है और वह किसी वस्तु का दर्शक है। 'त्व' यानी धर्म या स्वभाव । जिस प्रकार अग्नि का स्वभाव उष्णता है, उसी प्रकार ज्ञान यह जीव का स्वभाव है इसलिए ज्ञान या चेतना यह जीव तत्त्व हैं। स्वभावसहित पदार्थों का श्रद्धान् यह सम्यक्-श्रद्धान है । आश्रयभूत वस्तु के विना केवल एकान्त से अद्वैत के समान काल्पनिक तत्त्वों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन नहीं है। इसी तरह स्वभाव की प्रतीति न होते हुए उस वस्तु के सिर्फ पर्यायादि का श्रद्धान् सम्यग्दर्शन नहीं है, वरन् स्वभाव सहित वस्तु का श्रद्धान् ही 'सम्यग्दर्शन' है।३।
“सम्यक्" यह एक अव्यय है। “सम्” उपसर्गपूर्वक "अंचु" धातु से सम्यक् शब्द बना है। संस्कृत में इसकी व्युत्पत्ति 'समच्चति इति सम्यक्" इस प्रकार से होती है।४ “सम्यक्" पद निर्णय का विशेषण है। क्योंकि निर्णय ही सम्यक् व असम्यक् हो सकता है। पदार्थ स्वयं सम्यक् या असम्यक् नहीं होता, इसलिए उसे 'सम्यक्' विशेषण लगाना अयोग्य है।
सम्यग्दर्शन आत्मा का एक ऐसा गुण है जिसे प्रत्येक जीव प्रत्यक्ष देख नहीं सकता। आत्मा में प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और अस्तिक्य ये गुण प्रकट होने पर सम्यग्दर्शन का अस्तित्व सिद्ध होता है।
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