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________________ ३५६ मलिन - देह साधुओं को देखकर घृणा करना । ३) विचिकित्सा ४) मिथ्यादृष्टि प्रंशसा - जिनकी दृष्टि दूषित है, उनकी प्रशंसा करना । ५) मिथ्यादृष्टि सर्ग - मिथ्यादृष्टि के साथ रहना, उनकी संगति करना । इन पाँच दोषों का त्याग करना चाहिए। उसके बाद समयग्दर्शन की प्राप्ति होती है 1 ७ सम्यक्त्व के आठ अंग : सम्यक्त्व प्राप्ति के लिए आठ बातों की अत्यंत आवश्यकता है। वे इस प्रकार हैं१) निः शंका २) निःकांक्षित ३) निर्विचिकित्सा ४) अमूढदृष्टि ५) उपगूहन ६) स्थिरीकरण ७) वात्सल्य ८) प्रभावना (१) निःशंका - सम्यग्यदृष्टि जीव निःशंक होते हैं । और उनमें निर्भयता होती है। जो आत्मा कर्मबंधन के कारणों को अर्थात् मिथ्यात्व आदि पापों को नष्ट कर देता है, वह भयरहित हो जाता है। वह तत्त्व पर पूर्ण श्रद्धा रखता है, इसलिए वह निःशंक हो जाता है 1 (२) निःकांक्षित सम्यग्दृष्टि जीव संसार सुख की इच्छा नहीं करता। ऐसी इच्छा अज्ञानी व्यक्ति को ही होती है। ज्ञानी अपनी आत्मा को ही सुखस्वरूप समझता है। धर्म का फल आत्मसुख है, ऐसा वह समझता है। धर्म का सेवन करके उसके बदले में सांसारिक सुख की इच्छा न करना, इसे निःकांक्षितत्व कहते है । सम्यग्दृष्टि हमेशा निःकांक्षित भाव अर्थात् अनासक्त भाव से धर्म की आराधना करता है । इसलिए कहा गया है कि - Jain Education International जैन दर्शन के नव तत्त्व चक्रवर्ती की सम्पदा, इन्द्रसरीखे भोग | काकवाट सम गिनत है, सम्यग्यदृष्टि लोग ।। सम्यग्दृष्टि आत्मा देवगति के समान सुख की भी इच्छा नहीं करता । जो निरीच्छ होकर आत्मस्वभाव अर्थात् ज्ञाता दृष्टा भाव में ही रहता है, वह निःकांक्षित सम्यग्दृष्टि है । (३) निर्विचिकित्सा मुनि के शरीर आदि को मल मलिन देखकर घृणा न करना निर्विचिकित्सा है। साधु-साध्वीयों के प्रति श्रद्धा भाव रखना, उनके शरीर में रोग उत्पन्न होने पर उनकी सेवा करना, यही निर्विचिकित्सा है। जो सम्यग्दृष्टि जीव शरीर और आत्मा को भिन्न समझता है, शरीर में बीमारी देखकर भी घृणा नहीं करता, धर्म के संबंध में शंका नहीं रखता, अपितु उसका आदर करता है, वही निर्विचिकित्सक सम्यग्दृष्टि है । (४) अमूढ़दृष्टि - जो आत्मा भोगों में आसक्त नहीं होता तथा मिथ्या देव, मिथ्या गुरू और मिथ्या शास्त्रों में श्रद्धा नहीं रखता है, साथ ही सच्चे देव, सच्चे - - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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