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________________ ३५० जैन-दर्शन के नव तत्त्व क्रमशः आत्म विशुद्धि सविशेष रूप से बढ़ती जाती है। परिणामों में जितनी विशुद्धि अधिक रहेगी, उतनी ही कर्म-निर्जरा भी विशेष होगी अर्थात पूर्व की अवस्था में जितनी कर्म निर्जरा होती है, उससे आगे की अवस्था में परिणामों की विशुद्धि अधिकाधिक होने से कर्म निर्जरा भी बड़े पैमाने में बढ़ती जाती है और इस प्रकार बढ़ते-बढ़ते आखिर सर्वज्ञ अवस्था की प्राप्ति के समय निर्जरा का परिमाण सब से अधिक होता है। कर्म का अन्तः जिस प्रकार बीज जल जाने के बाद पौधा उत्पन्न नहीं हो सकता, उसी प्रकार कर्मरूपी बीज जल जाने पर संसाररूपी पौधा उत्पन्न नहीं होता।' जिसने प्राप्त हुए ईंधन को जला डाला है ओर जिसको नए ईधन की प्राप्ति नहीं होती है ऐसी अग्नि अन्ततः निर्वाण को पहुँचती है अर्थात् बुझ जाती है, उसी प्रकार मुक्त आत्मा सब कमों का क्षय करके निर्वाण को प्राप्त करता है, मोक्ष हासिल करता मोक्ष के नाम६३ : मोक्ष के परमपद, निर्वाण, सिद्धपद, शिव आदि अनेक नाम हैं। मोक्ष के ये सब नाम गुण-निष्पन्न हैं यथा - परमपद : मोक्ष से ऊँचा पद कोई भी नहीं है इसलिए उसे 'परमपद' कहा है। निर्वाण : मोक्ष के कारण कर्मरूपी दावानल शान्त हो जाता है, इसलिए उसे 'निर्वाण' कहा है। सिद्ध : संपूर्ण रूप से कृतकृत्य होने से उसे 'सिद्धपद' कहा जाता है। शिव : किसी भी प्रकार का उपद्रव न होने से मोक्ष को 'शिव' कहा जाता है। मोक्ष : 'मोक्ष' का अर्थ जहाँ मुक्त आत्माएँ रहती हैं वह स्थान ऐसा नहीं है, वरन् कर्मपाश का विमोचन ही 'मोक्ष' है। सिद्ध स्थान का स्वरूप : जैन आगमों में और जैन ग्रंथों में जगह-जगह सिद्ध स्थान का स्वरूप वर्णित है। जहाँ जन्म-जरा-मृत्यू नहीं, भय-शोक नहीं, पीडा-रोग नहीं, निद्रा नहीं, आहार-विहार नहीं, शत्रु-मित्र नहीं, राजा-नौकर नहीं, सेठ-सेनापति नहीं, खाना-पीना नहीं, ओढ़ना नहीं, बिछौना नहीं, लेना-देना नहीं, हँसना नहीं, खेलना नहीं, घूमना-फिरना नहीं, न्याय-अन्याय नहीं, दिन-रात नहीं, माया-ममता नहीं, राग-द्वेष नहीं, कलह नहीं, गड़बड़ी नहीं, वाद-विवाद नहीं, पढ़ना-पढ़ाना नहीं, अर्थ-अनर्थ नहीं, विचार-प्रचार नहीं, व्रत-बंधन नहीं, गुरु-शिष्य नहीं, आधि-व्याधि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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