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________________ ३४९ जैन-दर्शन के नव तत्त्व करने की प्रक्रिया प्रारंभ करता है।६ सबसे पहले क्रमशः मोहनीय कमों की अठाईस प्रकृतियों का क्षय होता है। बाद में पाँच प्रकार के ज्ञानावरणीय, नौ प्रकार के दर्शनावरणीय और पाँव प्रकार के अन्तराय कर्म इन तीनों कों की प्रकृतियों का एक ही समय में क्षय होता है। उसी समय परिपूर्ण आवरणरहित, विशुद्ध और लोकालोक प्रकाशक ऐसा केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त होता है। केवलज्ञान और केवलदर्शन इनकी प्राप्ति होते ही जीव के ज्ञानावरणीय आदि चार घाती कमों का नाश होता है और सिर्फ वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र ये चार अघाती कर्म शेष रहते है। - इसके बाद आयु का जब अंतरमुहूर्त (दो घटिका अर्थात अड़तालीस मिनट से कम) जितना समय शेष रहता है, तब मन, वचन एवं काया के स्थूल व्यापार का निरोध करके केवलज्ञानी शुक्ल ध्यान में स्थित होते हैं। बाद में वे मन, वचन एवं काया के सूक्ष्म व्यापार और श्वासोच्छ्वास का निरोध करते है। उसके बाद में पाँच इस्व अक्षरों का उच्चारण करने में जितना समय लगता है, उतने समय तक शैलेशी अवस्था में स्थित हो चाते हैं। उसमें स्थित होते ही अवशेष, आयुष्य, नाम, गोत्र एवं वेदनीय कर्म एक ही समय में नष्ट हो जाते है। इस प्रकार वे सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो जाते हैं और सब दुःखों का अंत करते हैं। कमों की निर्जरा : लोक के अग्रभाग में विराजित सिद्ध भगवंत ज्ञानावरणादि द्रव्यकों तथा भाव कर्मों से रहित, अनन्त सुखरूप अमृतत्व का पान कराने वाली शांति सहित और नवीन कर्मबंध के कारणभूत मिथ्यादर्शन आदि से रहित होते हैं। वे अनंत ज्ञान, दर्शन, सुख एवं शक्ति ऐसे अनन्तचतुष्टय से तथा अव्याबाध, अवगाहनत्व, सूक्ष्मत्व, अगुरुलधुत्व-इन आठ गुणों से युक्त और कृतकृत्य (जिसको कोई भी कार्य करना बाकी नहीं रहा) होते हैं। कर्मबंधन के कारण जीव जन्म-मरण करता हुआ संसार में परिभ्रमण करता है। नवीन कर्मबंध के हेतुओं का अभाव होने से तथा निर्जरा से पूर्वबद्ध कमों का आत्यांतिक क्षय होने से मोक्ष प्राप्त होता है। संसारी जीवों को नवीन कमों का बंध और पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा क्रम चलता ही रहता है और उसके कारण शुद्ध आत्म-स्वरूप की प्राप्ति नहीं हो पाती है। परन्तु पूर्वबद्ध कर्म की निर्जरा के साथ नवीन कर्मबंध के हेतुओं का अभाव होने से जीव आत्मोपलब्धि प्राप्त करता है और अनन्त ज्ञान-दर्शनादि रूप आत्म-स्वरूप को प्राप्त करता है। घाती कमों की निर्जरा सम्यकत्व प्राप्ति से प्रांरभ होकर सर्वज्ञ अवस्था की प्राप्ति पर समाप्त होती है। इसमें भी पूर्व की अपेक्षा उत्तरोत्तर परिणामों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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