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________________ जैन दर्शन के नव तत्त्व I स्याद्वाद इस धर्म में बताया गया है, इसलिए जैन-धर्म विश्वधर्म हो सकता जैन-धर्म कितना विशाल है यह बात निम्नलिखित श्लोक से अधिक स्पष्ट होती हैयस्य निखिलाश्च दोषा न सन्ति सर्वे गुणाश्च विद्यन्ते । ब्रहमा वा विष्णुर्वा हरो वा जिनो वा नमस्तस्मै ।। इससे नौ तत्त्वों के ज्ञान का वैशिष्ट्य और जैन धर्म की विशालता प्रकाशित होती है । अनन्त, अक्षय, अजर, अमर, अव्याबाध, नित्य और शाश्वत मोक्ष प्राप्त करना ही मानवमात्र का मूल ध्येय है। मोक्ष की प्राप्ति के बाद मानव के लिए कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं रहता क्योंकि मोक्ष ही आत्यन्तिक आनंद की अवस्था है। ९ 9 २ ४ सन्दर्भ देवेन्द्रमुनिशास्त्री - जैनदर्शनः स्वरूप और विश्लेषण - पृष्ठ ६७ तत्तं तह परमट्ठे दव्वसहावं तहेव परमपरं । धेयं सुद्धं परमं एयट्ठा हुति अभिहाणा ।। बृहद्नयचक्र ४ देवेन्द्रमुनि शास्त्री - जैनदर्शन: स्वरूप और विश्लेषणः पृ० ६८० पृथिव्यापस्तेजोवायुरिति तत्त्वानि । बृहस्पति हरिभद्रसूरि - षड्दर्शनसमुच्चय- पृ० २११, भा- ४७ जीवाजीवौ तथा पुण्यं पापास्रवसंवरौ । बन्धो विनिर्जरामोक्षौ नवतत्त्वानि तन्मते ।। Jain Education International माधवचार्य - सर्वदर्शनसंग्रह प्रस्तावना पृ० ३५ हरिभद्रसूरि - षड्दर्शनसमुच्चय चैतन्यलक्षणो जीवो यश्चैतद्विपरीतवान् । - पृ० २१३ अजीव : स समाख्यात : पुण्यं सत्कर्मपुद्गलाः । ।४६।। पृ० २१३ पापं तद्विपरीतं तु मिथ्यात्त्वधास्तु हेतवः । ये बन्धस्य स विज्ञेय आस्रवो जिनशासने ।। ५० ।। पृ० २६६ संवरस्तन्निरोधस्तु बन्धो जीवस्य कर्मणः । अन्योऽन्यानुगमात्मा तु यः संबन्धो द्वयोरपि ।। ५१ ।। पृ० २७५ बद्धस्य कर्मणः सादौ यस्तु सा निर्जरा मता । आत्यन्तिको वियोगस्तु, देहादेर्मोक्ष उच्यते । । ५२ ।। पृ० २७८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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