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________________ ३२४ जैन- दर्शन के नव तत्त्व है। जब तक बंधन के स्वरूप का आकलन नहीं होगा, तब तक मोक्ष का स्वरूप भी समझ में नहीं आयेगा । बंधन के संबंध में ही बोलना है तो यह समझ लेना चाहिए कि बंधन शरीर के कारण नहीं है, इंद्रियों के कारण भी नहीं है और अन्य किसी बाहय पदार्थ के कारण भी नहीं है । ये सब तो जड़ हैं। बंधन में डालना या मोक्ष देना यह जड़ का कार्य नहीं है। बंधन तो आत्मा के स्वयं के विचारों में और भावनाओं में होता है। जीव अपने भावों से ही बंधन में आता है और भावों से ही मुक्ति भी प्राप्त होती है। 'मन एवं मनुष्याणां कारणं बन्ध-मोक्षयो' यह सुभाषित सत्य ही है । मन ही बंधन और मुक्ति का कारण है। बंधन यह शरीर के कारण नहीं होता । शरीर के निमित्त से मन में जो राग, द्वेष के परिणाम होते हैं और जो विकल्प होते हैं, उन परिणामों से और विकल्पों से बंधन होता है और इनके नष्ट होने पर मुक्ति मिलती है। बंधन से मुक् जीव का लक्ष्य है कर्मों से मुक्ति प्राप्त करना । मुक्ति प्राप्त करने के लिए, साधक और बाधक कारणों का ज्ञान होना आवश्यक है। जैन दर्शन में नव-तत्त्वों की विवेचना के द्वारा इन साधक और बाधक तत्त्वों को समझाया गया हैं। जीव को लक्ष्य करके कहा गया है 'जीव' मुख्य तत्त्व है। इसके अतिरिक्त अन्य सब पदार्थ तो जड़ हैं, अजीव है। लोक-व्यवस्था में जीव और अजीव ये दो मुख्य तत्त्व हैं । जीव का स्वरूप ज्ञानानंदमय होने पर भी राग-द्वेष और मोह के कारण वह जड़ पदार्थ की ओर आकर्षित होता है, जीव उन्हें अपना समझता है, उनसे अपना संबंध जोड़ता है । पर - पदार्थ की ओर आकृष्ट होना 'आसव' है और उससे संबंध जोड़ना 'बंध' है। ये ही आस्रव और बंध जीव को संसार में जन्म-मरणरूप वेदना का अनुभव कराते हैं। 1 कभी कर्म का फल शुभ रूप में ( पुण्य रूप में ) और कभी अशुभ (पाप) रूप में प्राप्त होता है। जीव को संसार से मुक्ति नहीं मिलती । परन्तु जब जीव स्वरूप-प्राप्ति की ओर प्रयाण करता है, तब कर्म-बंधन से छुटकारा प्राप्त करने के लिए वह दो प्रकार से प्रयत्न करता है - १) नवीन कर्मों के आगमन को रोकना और २) पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय करना । नवीन कर्मों को रोकना ही 'संवर' है और पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय करना ही 'निर्जरा' है। संवर द्वारा नए कर्मों का आगमन रुकता है और निर्जरा से पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय होता है, इस प्रकार के पुरुषार्थ की पूर्णता से मोक्ष की प्राप्ति होती है, जो संपूर्ण कर्मों के क्षय की अवस्था है। आत्मा जब आत्मा में लीन होता है, Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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