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________________ ३२३ जैन-दर्शन के नव तत्त्व को और माया को बंध का कारण माना है और कहा है कि अविद्या और माया तभी दूर होगी जब ब्रह्म का अर्थात् शुद्धात्मा का साक्षात्कार होगा। बौद्ध दर्शन के अनुसार वासना या तृष्णा यह जन्म-मरणरूप संसार का मूल कारण है। विवेक और वैराग्य से वासना और तृष्णा का क्षय करके निर्वाण प्राप्त किया जा सकता है। वैशेषिक दर्शन और न्याय दर्शन में संसार का कारण अज्ञान माना गया है। वैशेषिक दर्शन के अनुसार सात पदार्थों का ज्ञान प्राप्त करने से और न्याय दर्शन के अनुसार षोडश पदाथों का ज्ञान प्राप्त करने से जीव को निःश्रेयस की प्राप्ति होती है। निःश्रेयस अर्थात् मोक्ष या मुक्ति। योगशास्त्र के अनुसार चित्तवृत्ति ही संसार का मूल कारण है। उस चित्तवृत्ति के निरोध को योग कहा जाता है। ध्यान और समाधि से जीव सब प्रकार के बंधन से मुक्त हो सकता है। मुक्तात्मा ही योगदर्शन के अनुसार ईश्वर है। थोड़े बहुत अन्तर से सभी भारतीय दर्शनों में यह एक ही बात कही गई है - बंधन है और बंधन का कारण है साथ ही बंधन से मुक्ति का उपाय भी है। साधक अपनी साधना द्वारा साध्य तक पहुँचकर सिद्धि प्राप्त कर सकता है। यही भारतीय दर्शन की मूल आत्मा है। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा और कर्म का संयोग यह संसार का मूल कारण है। यह संयोग जब तक रहेगा, तब तक आत्मा में रागात्मक और द्वेषात्मक वृत्ति रहेगी। क्योकि राग और द्वेष ही संसार का कारण है। राग, द्वेष नष्ट होते ही संसार के क्लेश भी नष्ट होंगे और मुक्ति मिलेगी। इस प्रकार राग का परिणाम अर्थात् भाव ही बंध का कारण है यह जानकर साधक राग-द्वेष आदि विकल्पों का त्याग करें और विशुद्ध ज्ञान-दर्शन यह जिसका स्वभाव है, ऐसे निजात्म स्वरूप में निरन्तर रमण करें। यह आत्मा अनन्त काल से बंधनों से बद्ध है। ये बंधन भी अनंतानंत हैं। हम आसक्ति और वासना की अनेकों बेड़ियों से जकड़े हुए है। आत्मा चुपचाप इन बंधनों स्वीकार नहीं करती हैं वरन् वह उन्हें तोड़ने का भी प्रयत्न करती रहती है। उन्हें भोगकर उन्हें तोड़ने का उसका प्रयत्न चलता रहता है। किन्तु नवीन-नवीन बंध से यह प्रक्रिया चलती रहती है। . प्रश्न यह है कि ये बंधन आत्मा पर कहाँ से आए? यह शरीर, यह परिवार, यह ऐश्वर्य आदि सब कहाँ से एकत्रित हुए? इन बाह्य उपाधियों ने ही तो आत्मा को बद्ध तो नहीं किया? काम-क्रोध जैसे आंतरिक शत्रुओं ने उसे किस प्रकार घेर लिया है? इस सबका स्वरूप समझे बिना आत्मा की मुक्ति सम्भव नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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