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जैन-दर्शन के नव तत्त्व भगवान् महावीर ने अनेकान्त-दृष्टि से और स्याद्वाद-दृष्टि से कहा है कि जब इस बात पर सर्वकष विचार किया जाता है, तब यह निर्णय लिया जाता है कि (प्रत्येक पदार्थ) “वस्तुसापेक्ष है"। एक व्यक्ति अधिक ज्ञान के क्षयोपशम का कारण जीव को समझकर मुक्तिमार्ग का निर्णय करने में समर्थ बनता है। दूसरा व्यक्ति जीव-अजीव तत्त्व को समझने में कामयाब होता है। तीसरा व्यक्ति सात तत्त्वों को समझने में समर्थ होता है। मंदबुद्धि लोगों को नौ तत्त्वों के द्वारा वस्तुस्थिति की जानकारी देनी होती है।
मेरे मत मे संसार में (विश्व में) नाना प्रकार के जीव हैं। उनकी दृष्टि भी अलग-अलग है परंतु ज्ञान का इतना क्षयोपशम नहीं है कि जीव तत्त्व को या जीव-अजीव तत्त्व को या सात तत्त्वों को समझकर वस्तुस्थिति का निर्णय किया जा . सके। इसलिए आज के युग में नवतत्त्वों का प्रतिपादन करने पर ही भगवान् महावीर के मौलिक सिद्धान्तों का आकलन हो सकता है। यह गहन दृष्टिकोण ही नौ तत्त्वों का अधिष्ठान है।
सात तत्त्वों और नौ तत्त्वों की मान्यता में तत्त्वतः कुछ भी भेद नहीं है। तत्त्व सात हों या नौ- इनका अंतर्भाव जीव-अजीव [Soul and Matter] में ही हो जाता है। परंतु ज्ञेय, हेय और उपादेय को समझने के लिए तत्त्वों का भिन्न-भिन्न प्रकार से निरूपण आवश्यक है।
आध्यात्मिक दृष्टि से तत्त्व तीन प्रकार के हैं- ज्ञेय, हेय और उपादेय। जो जानने योग्य है वह है ज्ञेय (ज्ञांतु योग्यं ज्ञेयम्), जो छोड़ने योग्य है वह हेय (हातुं योग्यं हेयम्) और जो ग्रहण करने योग्य है वह उपादेय (उपादातुं योग्यं उपादेयम्) है। जीव और अजीव दोनों ज्ञेय हैं। जो साधक अध्यात्मभावों की साधना करता है उस के लिए जीव और अजीव इन दोनों का ज्ञान आवश्यक है। अगर मानव जीव और अजीव को नहीं समझ सका, तब वह संसार के स्वरूप को कैसे समझ सकेगा? साधक के लिए बंधरूप संसार हेय है। नरकादि गति का दुःख भी हेय है। उसके कारण आम्रव तथा बंध ये दो पदार्थ हेय हैं। पाप तत्त्व भी हेय है। पुण्य तत्त्व मोक्ष का साधन प्राप्त करने की दृष्टि से अंशतः उपादेय है।
जो अविनाशी तथा अनंत सुख है वह उपादेय तत्त्व है उस अक्षय, अनंत सुख का कारण मोक्ष है और उस मोक्ष का कारण संवर तथा निर्जरा हैं इसलिए ये तत्त्व उपादेय हैं।
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