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जैन-दर्शन के नव तत्त्व
२. दूसरी व्युत्पत्ति से यह प्रतीत होता है कि जीव का स्वभाव मिथ्यात्व आदि
से युक्त होकर परतंत्र होने का है।
मनुष्य को उन्मत्त बनाना यह मदिरा का स्वभाव है और मदिरा से उन्मत्त बनना यह मनुष्य का स्वभाव है। उसी प्रकार जीव को राग-द्वेष आदि रूपों में परिणत करा देना यह कर्म का स्वभाव है और राग, द्वेष आदि रूपों में परिणत होना यह जीव का स्वभाव है। कर्म और जीव का जब तक संबंध रहेगा तब तक जीव विभावरूप में परिणति करेगा। 'कर्म' शब्द के विविध अर्थ :
'कर्म' यह शब्द लोक व्यवहार और शास्त्रीय इन दोनों अर्थों से प्रसिद्ध है। उसके अनेक अर्थ होते हैं। सामान्य लोग अपने व्यवहार में 'काम-धंधा' या 'व्यवसाय' इस अर्थ से 'कर्म' शब्द का प्रयोग करते हैं। शास्त्र में उसका एक ही अर्थ नहीं है। खाना, पीना, चलना आदि किसी भी हलचल के लिए -फिर वह जीव की हो या अजीव की - 'कर्म' शब्द का प्रयोग किया जाता है।
कर्मकाण्डी मीमांसक यज्ञ- याग आदि क्रियाओं के अर्थ में कर्म शब्द का व्यवहार करते हैं। स्मार्त विद्वान ब्राह्मण आदि चार वणों और ब्रह्मचर्य आदि चार आश्रमों के नियम या कर्तव्यों के इस अर्थ में पौराणिक लोग व्रत- नियम आदि धार्मिक क्रियाओं के अर्थ में और वैशेषिक उत्क्षेपण आदि पाँच कमों के अर्थ में 'कर्म' शब्द का व्यवहार करते हैं।
जैन दर्शन में 'कर्म' शब्द जिस अर्थ में प्रयुक्त होता है, उसी अर्थ के या उससे मिलने वाले अर्थ के कुछ शब्द जैनेतर दर्शनों में भी मिलते है, यथा माया, अविद्या, प्रकृति, अपूर्व, वासना, आशय, धर्म-अधर्म, अदृष्ट, दैव, संस्कार, भाग्य आदि।
माया, अविद्या और प्रकृति ये तीन शब्द वेदान्त दर्शन में मिलते हैं। इनका मूल अर्थ करीब करीब वही है, जिसे चैन दर्शन में 'भाव-कर्म' कहते हैं। 'अपूर्व' यह शब्द मीमांसा दर्शन में मिलता है। 'वासना' यह शब्द बौद्ध दर्शन में तो प्रसिद्ध है ही परंतु योग दर्शन में भी उसका उपयोग दिखाई देता है। 'आशय' यह शब्द विशेषतः योग और सांख्य दर्शन में मिलता है। धर्म-अधर्म, अदृष्ट और संसार इनका प्रयोग न्याय, वैशेषिक दर्शनों के समान ही अन्य दर्शनों में भी मिलता है।
दैव, भाग्य, पुण्य-पाप आदि कुछ ऐसे शब्द हैं जो सब दर्शनों में मिलते हैं। जो दर्शन आत्मवादी हैं और पुनर्जन्म मानते हैं, उन्हें पुनर्जन्म की सिद्धि या उपपत्ति के लिए कर्म मानना ही पड़ता है। उन दर्शनों की भिन्न-भिन्न अवधारणाओं के कारण या वैचारिक मतभेद के कारण, कर्म का स्वरूप
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