SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 332
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०५ जैन-दर्शन के नव तत्त्व नहीं जा सकता, इसलिए आयुष्य कर्म के बाद नाम कर्म रखा गया है। नाम कर्म का उदय होने पर उसके साथ ही उच्च नीच गोत्र का उदय होता ही है। इसलिए नाम-कर्म के बाद गोत्र-कर्म का स्थान है। या उच्च गोत्र का उदय होने पर अनुक्रम से दान, लाभ आदि अन्तरायों का उदय और विनाश होता है। इसलिए गोत्र कर्म के बाद अन्तराय कर्म आता है। कर्म : कर्म शब्द के अनेक अर्थ हैं। कारण, क्रिया और जीव से बद्ध ऐसे विशिष्ट जाति के पुद्गल स्कंध। कारक यह शब्द सुप्रसिद्ध है, क्रियाओं के भी अनेक प्रकार हैं, परन्तु तीसरे प्रकार का पुद्गल कर्म विशेष प्रसिद्ध नहीं है। केवल जैन सिद्धान्त ही उसका विशेष प्रकार से विवेचन करता है। वस्तुतः कर्म का मौलिक अर्थ तो क्रिया ही है। जीव मन, वचन और काया के द्वारा कुछ न कुछ करता रहता है। उसकी सभी क्रियाएँ कर्म हैं; मन, वचन और काया - ये उसके तीन द्वार हैं। इसे ही जीवकर्म या भावकर्म कहते हैं। इसी भावकर्म से प्रभावित होकर कुछ सूक्ष्म जड़ पुद्गल स्कंध जीव के आत्म प्रदेशों में प्रवेश करते हैं। उससे बद्ध होते हैं। यह बात केवल जैन आगम ही कहते हैं। इन सूक्ष्म स्कंधों को अजीव कर्म या द्रव्यकर्म कहते हैं। जैसे जैसे जीवकर्म करते रहते हैं, वैसे वैसे स्वभाव के द्रव्यकर्म के साथ बंध जाते हैं और जो कुछ काल पश्चात् परिपक्व दशा को प्राप्त होकर उदय में आते हैं।७४ 'कर्म' शब्द की व्युत्पत्तियाँ : संस्कृत में 'कर्म' शब्द की अनेक व्युत्पत्तियाँ बताई गई हैं। कहा गया है "जीव परतंत्रीकुर्वन्ति -इति कर्माणि। अर्थात् जीव को जो परतंत्र करता है, वह कर्म। या "जीवेन मिथ्यादर्शनादिपरिणामेः क्रियन्ते -इति कर्माणि" अर्थात् मिथ्यादर्शन आदि रूप परिणामों से युक्त होकर जीव द्वारा जो किया जाता है वह कर्म है। प्राकृत भाषा में कर्म की इस प्रकार की व्युत्पत्ति बताई गई है - 'कीरइ जीवेण जेण हेउहिं तं. आ भण्णए कम्म' - अर्थात् मिथ्यात्व, अविरति आदि हेतुओं से जीव द्वारा जो किया जाता है और जिससे कार्मण वर्गणा के पुद्गल आत्मा के साथ मिल जाते हैं, वही कर्म है। ऊपर की व्युत्पत्तिओं के अलावा भी कर्म शब्द की अनेक व्युत्पत्तियाँ हैं। परंतु उनसे मौलिक अर्थ नहीं निकलता। ऊपर जो दो प्रकार की व्युत्पत्तियाँ कही गई हैं; उनसे निम्नलिखित दो बातें समझ में आती हैं - १. पहली व्युत्पत्ति से यह प्रतीत होता है कि कर्म में जीव को परतंत्र बनाने का स्वभाव है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy