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________________ २९९ ज्ञानेच्छुकों का कथन होता है और दर्शनावरण के बंध में दर्शन और दर्शनेच्छुकों का कथन होता है। । - १) जैसे दर्शन और दर्शनेच्छुकों की निन्दा करना, आदि । दर्शनावरणीय कर्म नौ प्रकारों से भोगा जाता है। चक्षुदर्शनावरणीय कर्म, अचक्षुदर्शनावरणीय कर्म, अवधिदर्शनावरणीय कर्म, केवलदर्शनावरणीय कर्म, निद्रा (सहज आनेवाली नींद) प्रचला (बैठे-बैठे आनेवाली नींद) प्रचलाप्रचला ( चलते-चलते आने वाली नींद ) निद्रा - निद्रा ( कष्ट से खुलनेवाली निद्रा) स्त्यानगृद्धि (दिन में सोचा हुआ कार्य नींद में करना। ऐसे समय मृत्यु आने पर नरक -गति प्राप्त होती हैं ।) १° ५० जैन दर्शन के नव तत्त्व ३) वेदनीय कर्म : " जिससे सुख-दुःख का अनुभव आता है, वह वेदनीय कर्म है । वेदनीय कर्म का स्वभाव मधु से लिपटी हुई तेज तलवार के समान है। जिस प्रकार मधु से लिपटी हुई तलवार को चाटने पर वह मीठी तो लगती है, लेकिन जिव्हा को काटती भी है, उसी प्रकार वेदनीय कर्म सुख-दुःख का अनुभव देता है । इसके दो भेद हैं १) सातावेदनीय कर्म और २) असातावेदनीय कर्म । यह दस प्रकारों से बांधा जाता है १) प्राणानुकम्पा : २) भूतानुकम्पा : ३) जीवानुकम्पा : ४) सत्वानुकम्पा : ५) प्राणी, जीव, सत्व और भूतों को दुःख न देने से । ६) उन्हें शोक न देने से । - Jain Education International ७) उन्हें तकलीफ न देने से । ८) अन्य जीवों को नहीं रुलाने से । ६) नहीं मारने से । दो इन्द्रियों, तीन इन्द्रियों या चार इन्द्रियाँ होने वाले जीवों पर दया या अनुकम्पा करने से । वनस्पतिकाय के जीवों पर दया या अनुकम्पा करने से होने वाली । पंचेद्रिय जीवों की हिंसा न करने से, उनके दुःखों को दूर करने से, उन्हें सुख देने से I पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय, जीवों का रक्षण करने से । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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