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________________ २९७ जैन-दर्शन के नव तत्त्व आत्मा के असंख्य प्रदेश होते हैं। इन असंख्य प्रदेशों में से एक-एक प्रदेश पर अनन्तानन्त कर्म-वर्गणाओं का संग्रह होना 'प्रदेशबंध' है। जीव के प्रदेशों और पुद्गल के प्रदेशों का एक क्षेत्रावगाही होकर स्थित होना ‘प्रदेशबंध' है। जो घनांगुल के असंख्यातवें भाग के समान एक क्षेत्र में स्थित हैं, जिनकी एक, दो, तीन आदि समय से लेकर असंख्यात समय की स्थिति है, जो उष्ण और शीत तथा रुक्ष और स्निग्ध स्पर्श से सहित है, समस्त वर्ण और रसरहित है, सभी कर्म-प्रकृतियों के योग्य है, पुण्य-पाप के भेद से दो प्रकार के है, सूक्ष्म है, जो समस्त आत्म-प्रदेशों में अनंतानंत प्रदेशों सहित है, ऐसे स्कंध रूप या पुद्गल, कार्मणवर्गणाओं के परमाणु समूह को यह जीव जो अपने अधीन करता है, वह 'प्रदेशबंध' हैं।" चारों प्रकार के बंध को संक्षेप में इस प्रकार कह सकते है - कर्म के स्वभाव को 'प्रकृतिबंध' कहते हैं। ज्ञानावरणादि कमों का काल विशेष तक अपने स्वभाव से च्युत न होना 'स्थितिबंध' है। ज्ञानावरणादि कर्मरूप होने वाले पुद्गल स्कंध की परमाणु संख्या को 'प्रदेशबंध' कहते हैं, और उनके रस की तीव्रता या मंदता अनुभाग बंध हैं। इन चार प्रकार के बंधों में प्रकृति और प्रदेशबंध योग के निमत्त से होते हैं तथा स्थिति और अनुभाग बंध कषाय के निमित्त से होते हैं। योग और कषाय के तर-तम भावों से बंध भी में तर-तमता आती है। ये चारों बंध सूंठ, मेथी आदि वस्तुएँ एकत्रित रके उनसे बनाए हुए लड्डू के दृष्टान्त से भी समझाये जाते हैं। ये लड्डू खाने से वात आदि विकार दूर हो जाते हैं, यह उनकी प्रकृति या स्वभाव हुआ। ये लड्डू जितने दिन टिकते हैं, उतनी उनकी कालमर्यादा है। यह स्थिति है। ये लड्डू कड़वे, मीठे होते है, यह उनका रस (स्वाद) अनुभाग हुआ। कुछ लड्डू बड़े, कुछ छोटे होते हैं, यह उनका परिमाण, मात्रा या प्रदेश है। लड्डू में जैसी ये चार बातें बताई हैं, उस प्रकार कमों के बंध में भी ये चार बातें होती है। इसे ही चार प्रकार का बंध कहते हैं। वे हैं - १) प्रकृति-अर्थात् कर्म का स्वभाव २) स्थिति अर्थात् कर्म की काल मर्यादा ३) अनुभाग अर्थात् कर्म का रस या तीव्रता-मंदता और ४) प्रदेश अर्थात् कर्म का परिमाण। प्रकति-बंध के (कर्म के) आठ भेद : कर्म प्रकृति-बंध के निम्नलिखित आठ भेद हैं - १) ज्ञानावरणीय, २) दर्शनावरणीय, ३) वेदनीय, ४) मोहनीय, ५) आयुष्य, ६) नाम, ७) गोत्र और ८) अंतराय। प्रत्येक कर्म कैसे बांधा जाता है, उसका फल कैसे भोगना पड़ता है और उस कर्म का क्षय कैसे होता है, यह सब जान लेने पर हमें मुक्ति -मार्ग का बोध होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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