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________________ २८२ जैन-दर्शन के नव तत्त्व बनाने की दिव्य साधना है। यह एक ऐसी अद्भुत साधना है जिससे आध्यात्मिक परिपूर्णता प्राप्त होती है, और अन्त में साधक जन्म, जरा एवं मृत्यु के चक्र से विमुक्त होकर परमात्म-पद तक पहुँचता है। तप जल के बिना ही होने वाला अन्तरंग स्नान है। यह जीवन के विकारों का सम्पूर्ण मल धोकर स्वच्छता लाता है। इस प्रकार जैन-धर्म के तप के महत्त्व को समझ लेने पर स्पष्ट हो जाता है कि जैन-धर्म एक वैज्ञानिक धर्म है। सन्दर्भ १. (क) उत्तराध्ययनसूत्र - अ. २८, गा. ३६. खवेत्ता पुव्वकम्माइं संजमेण तवेण य ।। सव्वदुक्खप्पहीणट्ठा पक्कमन्ति महेसिणो ।। (ख) पं- विजयमुनि शास्त्री - समयसारप्रवचन - पृ. ८१-८२ (ग) उत्तराध्ययनसूत्र - अ. ३०, गा. ५, ६. जहा महातलायस्स सन्निरुद्ध जलागमे । उस्सिचिंणाए तवणात् कमेणं सोसणा भवे ।। ५ ।। एवं तु संजयस्सावि पावकम्मनिरासवे भवकोडीसंचियं कम्मं तवसा निजरिज्जई ।। ६ ।। २. वाचस्पति गैरोला - संस्कृत साहित्य का संक्षिप्त इतिहास - पृ. २१६. ३. (क) श्रीसिद्धसेनगणि - तत्त्वार्थाधिगमसूत्र (स्वोपज्ञभाष्य) - भा. २, अ. ८, सू. २४, पृ. १७३ सा च निर्जरा द्विविधा-विपाकजा अविपाकजा च । (ख) श्रीसिद्धसेनगणि-तत्त्वार्थाधिगमसूत्र (स्वोपज्ञभाष्य) - भा. २, अ. ८, सू. २४, पृ. १७३-१७४. तत्राद्या संसारोदधौ परिप्लवमानस्यात्मनः शुभाशुभस्य कर्मणो विपाककालाप्राप्तस्य यथायथमुदयावलिकात्तोतसि पतितस्य फलोपभोगादुपजातिस्थितिक्षये या निवृत्तिः सा विपाकजा निर्जरा । यत् पुनः कर्माप्राप्तविपाककालमौपक्रमिकक्रियाविशेषसामर्थ्यादनुत्तीर्ण बलादुदीर्योदयावलिकामनुप्रवेश्य वेद्यते पनसतिन्दुकाप्रकलपाकवत् सा त्वविपाकजा निर्जरा ।। ४. (क) उमास्वाति - तत्त्वार्थसूत्र - अ. ६, सू. १६, २०. अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाहूयंतपः ।। १६ ।। प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् ।। २० ।। (ख) उत्तराध्ययनसूत्र - अ. ३०, सू. ८, ३०. (ग) भट्टाकलंकदेव-तत्त्वार्थराजवार्तिक-भाग २, अ. ६, सू. १६, २०, पृ. ६१८ ५. उत्तराध्ययनसूत्र - अ. ३०, सू. ७. सो तवो दुविहो वुत्तो बाहिरब्भन्तरो तहा । . . k'. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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