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________________ जैन दर्शन के नव तत्त्व जाता है । ध्यानावस्था साधक को जड़ नहीं बनाती, वह उसे सूक्ष्म से शून्य अवस्था तक पहुँचाती है तथा अनन्त शक्ति और प्रसन्नता से ओतप्रोत करती है । ध्यान-साधना आध्यात्मिक ऊर्जा का स्रोत तो है ही सामाजिक शालीनता और विश्व बंधुत्व की भावना की वृद्धि में भी उससे मदद मिलती है। ध्यान, जीवन से पलायन नहीं है। जीवन के साथ सदाचारनिष्ठ, कलात्मक और अनुशासनबद्ध रहने का महत्त्वपूर्ण साधन है। ध्यान एक ऐसा संगम-स्थान है जहाँ विभिन्न धर्म जाति और संस्कृति के लोग एक साथ बैठकर परम सत्य का साक्षात्कार करते हैं । परिणामतः उन्हें आत्मशान्ति प्राप्त होती है। ध्यान के विषय में विशेष विवेचन 'जिनवाणी' में भी मिलता है । ७२ २८१ तप का माहात्म्य : 'तप' चिन्तामणि रत्न के समान चिन्ताओं को दूर करने वाला है । दुःखरूपी अन्धकार हटाने के लिए तप साक्षात् सूर्य के समान है । कर्मरूपी पर्वतों का नाश करने के लिए यह वज्र के समान उपयोगी है। इसमें समस्त प्रकार की अर्थसिद्धि समाविष्ट है । सभी मनुष्यों के कर्मों को तप ही नष्ट करता है । तप संसाररूपी समुद्र को पार करवाता है। इसलिए तप की शुद्ध भावना से आराधना करनी चाहिए । तप का तेज सूर्य से ज्यादा प्रखर है। मुक्ति और अध्यात्म के लिए सभी धर्मों में तप को महत्त्व दिया गया है । ३ ७३ जैन दर्शन का तप साधना का मार्ग हठयोग का मार्ग नहीं है। शरीर और मन पर किसी भी प्रकार का बलात्कार यहाँ दिखाई नहीं देता। मन की प्रसन्नता के उपरान्त ही शरीर के द्वारा तप हो सकता है। जैन धर्म की तप साधना में एक विशेषता यह भी है कि दुर्बल से दुर्बल साथ ही महान् से महान् शक्तिशाली पुरुष भी अपनी शक्ति के अनुसार इस तपोमार्ग की आराधना कर सकता है। छोटे से छोटा व्रत एक पोरुषी (केवल ढाई-तीन घण्टों के लिए आहार का त्याग ) करके भी इस तप की आराधना का प्रारंभ किया जा सकता है । ऊनोदरी तो रोगी, भोगी, योगी कोई भी कर सकता है। इस प्रकार तप की आसान साधना भी इसमें बताई गयी है। धीरे-धीरे शरीर और मन दृढ़ होने पर कठोर, दीर्घ उपवास, ध्यान और कायोत्सर्ग तक की साधनाओं द्वारा साधक तप के उच्चतम शिखर पर पहुँच सकता है। वास्तव में तप अध्यात्म-साधना का प्राण है । भारतीय धर्मों में और विशेष रूप से जैन-धर्म में तप के विविध भेदों पर संपूर्ण विचार, चिन्तन और मनन किया गया है । जीवन की प्रत्येक प्रवृत्ति तपोमय होनी चाहिए, ऐसी जैन-धर्म की जीवनदृष्टि है । तप जीवन की ऊर्जा है। सृष्टि का मूलचक्र है । तप ही जीवन है । तप दमन नहीं शमन है । निग्रह नहीं है, अभिग्रह है । केवल भोजन निरोध ही नहीं, वासना-निरोध भी है । तप जीवन को सौम्य, स्वच्छ, सात्विक और सर्वांगपूर्ण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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