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________________ विद्या, साधना एवं सेवा की दिव्यमूर्ति उज्ज्वल धर्म प्रभाविका महासतीवर्या डॉ० धर्मशीला जी म0 साo संक्षिप्त परिचय श्रमण भगवान् महावीर द्वारा संप्रवर्तित आध्यात्मिक | क्रांति के महान् संदेश वाहक विशाल साधु-साध्वी समुदाय के मध्य दिव्यमूर्ति, परम विदुषी महासती जी श्री डॉ० धर्मशीलाजी म0सा0 एम0 ए0, पी-एच0 डी0 का अत्यन्त | महत्त्वपूर्ण स्थान है। ___महाराष्ट्र की पुण्यभूमि में अहमदनगर जिले के अन्तर्गत कान्हूर पठार नामक ग्राम में परम धर्मानुरागी पिता श्री रामचंदजी शिंगवी के यहाँ श्रीमती कस्तूरी बाई शिंगवी की रत्नगर्भा कुक्षि से विमल बहन का जन्म हुआ, जो आगे चलकर जैन जगत् की दिव्य ज्योति महासतीजी श्री डॉ० धर्मशीलाजी म0 साल के रूप में राष्ट्र विश्रुत बनीं । आचार्य सम्राट् पू0 श्री आनंदऋषिजी म0 साल के मुखारविंद से भागवती दीक्षा स्वीकार कर विद्या, साधना और तितिक्षा की त्रिवेणी-स्वरूपा विश्वसंत-विरुद-विभूषिता गुरुणीवर्या महासतीजी पूज्य उज्ज्वल कुमारीजी म0 साल की सेवा में सर्वतो भावेन समर्पित हो गईं । उनके सान्निध्य में श्रुताराधना और चारित्राराधना के पावन पथ पर उत्तरोत्तर अग्रसर होती रहीं । उनके जीवनपर्यंत प्राणपण से उनकी सेवा में अहर्निश संलग्न रहीं । अपनी नैसर्गिक प्रतिभा और प्रखर बुद्धि के परिणाम-स्वरूप महासती जी श्री धर्मशीला जी ने पूना विश्वविद्यालय में प्राकृत और पालि की एम0 ए0 परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्णकर प्रथम स्थान प्राप्त किया । आपने हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग की साहित्य रत्न परीक्षा में भी प्रथम श्रेणी में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया । आपका हिन्दी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी, संस्कृत, प्राकृत, पालि तथा अंग्रेजी आदि अनेक भाषाओं पर असाधारण अधिकार है । जैन दर्शन के साथ-साथ आप का अन्य भारतीय दर्शनों का भी गहन अध्ययन है । सन् 1977 में "जैन दर्शन में नवतत्त्व' विषय पर भारत वर्ष के समस्त साधु-साध्वी वृंद में सर्वप्रथम आपने ही पी-एच0डी0 की उपाधि प्राप्त की। भगवान् महावीर द्वारा निरूपित अंहिसा एवं विश्वशांति के महान् आदर्शों के संप्रसार हेतु आप निरंतर प्रयत्नशील हैं । आपके सदुपयोग और सत् प्रेरणा से अनेक स्थानों में धर्मोपासना केंद्र (स्थानक), शिक्षण-संस्थान तथा चिकित्सालय स्थापित और विकसित हुए । आपकी सत्शिक्षाओं से प्रभावित होकर सहस्रों, सहस्रों व्यक्ति शाकाहारी और निर्व्यसनी बने । महाराष्ट्र के अनेक अंचलों में जन-जन को आत्मजागरण का संदेश देते हुए आपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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