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(१) प्राणातिपात किसी भी जीव को दुःख देना प्राणातिपात - पाप है ।
(२) मृषावाद (३) अदत्तादान
को ग्रहण करना
वस्तु (४) मैथुन
है ।
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(५) परिग्रह उसमें आसक्ति रखना परिग्रह पाप है । (६) क्रोध
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असत्य बोलना और असत्य आचरण करना मृषावाद - पाप है ।
चोरी करना और मालिक के द्वारा दिए बिना किसी भी अदत्तादान - पाप है ।
अब्रह्मचर्य, कुशील सेवन तथा ब्रह्मचर्य का पालन न करना मैथुन
(७) मान अहंकार करना, चित्त की कोमलता का न होना और विनय का
अभाव होना मान - पाप है।
(१२) कलह कलह पाप है '
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(८) माया माया- पाप है I (६) लोभ
करने का प्रयास करना लोभ पाप है 1
जैन दर्शन के नव तत्त्व
जीवों की हिंसा करना, प्राणियों का वध करना तथा
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धन आदि द्रव्य का ममत्व, धन-धान्यादि का संग्रह करना और
क्रोध करना तथा शान्ति न रखना क्रोध-पाप है ।
(१०) राग आसक्ति भाव रखना तथा मनोज्ञ वस्तु से स्नेह रखना राग - पाप है । माया और लोभ से राग उत्पन्न होता है ।
(११) द्वेष क्रोध और मान से द्वेष उत्पन्न होता है ।
कपट करना, छल-प्रपंच करना, किसी को फँसाना तथा कटुता
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लालसा, तृष्णा और धन-धान्य आदि वस्तु ज्यादा से ज्यादा प्राप्त
वैर-विरोध करना तथा अमनोज्ञ वस्तु से द्वेष करना द्वेष - पाप
है
झगड़ा करना, क्लेश करना और शान्ति न रखना ही
किसी व्यक्ति पर झूठे दोष लगाना, झूठे कलंक
(१३) अभ्याख्यान लगाना, दूसरे के दोष प्रकट करना अभ्याख्यान - पाप है। (१४) पैशुन्य दूसरे को भला-बुरा कहना तथा किसी के भी दोष प्रकट करते रहना पैशुन्य - पाप है ।
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(१५) परपरिवाद -
दूसरे की निन्दा करना, दूसरे का बुरा करना और झूठे दोष लगाना परपरिवाद - पाप है । (१६) रति-अरति बुरे कर्म में और पाप में मन लगाना, ध्यान-संयम- तप आदि धर्म कार्यों में रुचि न रखना ( मन न लगाना) अथवा इंद्रियों के मनोज्ञ विषय प्राप्त कर प्रसन्न होना और अमनोज्ञ विषय से दुःखी होना रति- अरति - पाप है (१७) मायामृषावाद ( मायामोसौ )
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कपट - सहित झूठ बोलना
मायामृषावाद - पाप है ।
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