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________________ १३२ (१) प्राणातिपात किसी भी जीव को दुःख देना प्राणातिपात - पाप है । (२) मृषावाद (३) अदत्तादान को ग्रहण करना वस्तु (४) मैथुन है । - - - (५) परिग्रह उसमें आसक्ति रखना परिग्रह पाप है । (६) क्रोध · - - असत्य बोलना और असत्य आचरण करना मृषावाद - पाप है । चोरी करना और मालिक के द्वारा दिए बिना किसी भी अदत्तादान - पाप है । अब्रह्मचर्य, कुशील सेवन तथा ब्रह्मचर्य का पालन न करना मैथुन (७) मान अहंकार करना, चित्त की कोमलता का न होना और विनय का अभाव होना मान - पाप है। (१२) कलह कलह पाप है ' - - · (८) माया माया- पाप है I (६) लोभ करने का प्रयास करना लोभ पाप है 1 जैन दर्शन के नव तत्त्व जीवों की हिंसा करना, प्राणियों का वध करना तथा Jain Education International धन आदि द्रव्य का ममत्व, धन-धान्यादि का संग्रह करना और क्रोध करना तथा शान्ति न रखना क्रोध-पाप है । (१०) राग आसक्ति भाव रखना तथा मनोज्ञ वस्तु से स्नेह रखना राग - पाप है । माया और लोभ से राग उत्पन्न होता है । (११) द्वेष क्रोध और मान से द्वेष उत्पन्न होता है । कपट करना, छल-प्रपंच करना, किसी को फँसाना तथा कटुता - लालसा, तृष्णा और धन-धान्य आदि वस्तु ज्यादा से ज्यादा प्राप्त वैर-विरोध करना तथा अमनोज्ञ वस्तु से द्वेष करना द्वेष - पाप है झगड़ा करना, क्लेश करना और शान्ति न रखना ही किसी व्यक्ति पर झूठे दोष लगाना, झूठे कलंक (१३) अभ्याख्यान लगाना, दूसरे के दोष प्रकट करना अभ्याख्यान - पाप है। (१४) पैशुन्य दूसरे को भला-बुरा कहना तथा किसी के भी दोष प्रकट करते रहना पैशुन्य - पाप है । - 1 • (१५) परपरिवाद - दूसरे की निन्दा करना, दूसरे का बुरा करना और झूठे दोष लगाना परपरिवाद - पाप है । (१६) रति-अरति बुरे कर्म में और पाप में मन लगाना, ध्यान-संयम- तप आदि धर्म कार्यों में रुचि न रखना ( मन न लगाना) अथवा इंद्रियों के मनोज्ञ विषय प्राप्त कर प्रसन्न होना और अमनोज्ञ विषय से दुःखी होना रति- अरति - पाप है (१७) मायामृषावाद ( मायामोसौ ) 1 कपट - सहित झूठ बोलना मायामृषावाद - पाप है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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