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जैन-दर्शन के नव तत्त्व चाहिए। यही आदर्श त्याग है। ऐसा त्याग ही व्यक्ति को पाप से बचाता है, घोर पतन से उसका संरक्षण करता है और अंधकार से उसे दूर रखता है।
द्रव्यपाप और भावपाप जिसके उद्गम से दुःख की प्राप्ति होती है और आत्मा शुभ कार्य से पृथक् रहता है, उसे पाप कहते हैं। उसके दो भेद हैं -
(१) द्रव्यपाप और (२) भावपाप। (१) द्रव्यपाप - जिस कर्म के उदय से जीव दुःख का अनुभव करता है, वह द्रव्यपाप है। (२) भावपाप . जीव के अशुभ परिणाम को भावपाप कहते हैं। पाप की अशुभ प्रकृति और अशुभ योग से पाप का बन्ध होता है।" पाप के अन्य दो भेद
पुण्य के समान ही पाप के भी अन्य दो भेद बताये गये हैं - (१) पापानुबन्धी पाप एवं (२) पुण्यानुबन्धी पाप।
जिस पाप को भोगते समय नया पाप बढ़ता है, वह पापानुबंधी पाप है। जिस प्रकार कसाई, कोली आदि ने पूर्वजन्म में पाप किया होता है इसलिए उन्हें इस जन्म में दरिद्रता आदि कष्ट भोगने पड़ते हैं। और इन पापों को भोगते समय वे नये पापों का बंध करते हैं, इसलिए वह पापानुबंधी पाप है।
जिस पाप को भोगते समय नया पुण्योपार्जन होता है, उसे पुण्यानुबंधी पाप कहते हैं। जो जीव पूर्वजन्म में किए हुये पाप के कारण इस जन्म में दरिद्रता आदि दुःख भोग रहे हैं, परंतु जो सत्संग आदि कारणों से विवेकपूर्ण कार्य करके पुण्योपार्जन कर रहे हैं, उसे पुण्यानुबंधी पाप कहते हैं।
पाप के अठारह भेद पाप के कारण अनेक हैं, तथापि पाप के अठारह कारण माने गये हैं। इन्हें पापस्थान भी कहते हैं और पाप के अठारह भेद भी कहते हैं।
__ पाप के निम्नलिखित अठारह भेद हैं . (१) प्राणातिपात (७) मान
(१३) अभ्याख्यान (२) मृषावाद (८) माया
(१४) पैशुन्य (३) अदत्तादान (६) लोभ
(१५) परपरिवाद (४) मैथुन (१०) राग
(१६) रति-अरति (५) परिग्रह (११) द्वेष
(१७) मायामृषावाद (६) क्रोध (१२) कलह
(१८) मिथ्यादर्शनशल्य
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