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________________ १२० जैन-दर्शन के नव तत्त्व जिस जीव के भाव शुभ होते हैं, उसके चित्त में कटुता नहीं होती और जो जीव दयावान् होता है, वह पुण्यशील माना जाता है। अरिहन्त, सिद्ध और साधु की भक्ति, धार्मिक प्रवृत्ति और गुरु का अनुकरण ये शुभराग और शुभ-भाव हैं। भूखे, प्यासे, दुःखी और कष्ट से पीड़ित जीवों को देखकर स्वयं उस दुःख का अनुभव करना और दया-बुद्धि से उनकी सहायता करना, अनुकम्पा और शुभ-भाव कहलाता है। जो मनुष्य विषय-कषाय में डूब जाता है, कुशास्त्र, दुष्ट विचार, विकार और बुरी बातों की संगति करता है, जो मिथ्याशास्त्र सुनता है, आतं, रौद्र और अशुभ ध्यान में जिसका मन डूबा रहता है, जो दूसरों की निन्दा करता है, हिंसादि का आचरण करता है, वीतराग-मार्ग को उल्टा समझता है और मिथ्या-मार्ग से गमन करता है, वह अशुभ उपयोग से युक्त है।* प्रमादी प्रवृत्ति, कलुषता, लोलुपता, दूसरों को दुःख देना तथा दूसरों की निन्दा करना - ये पाप के द्वार हैं और अशुभ कर्म हैं। आहार, भय, मैथुन, परिग्रह - ये चार संज्ञाएँ; कृष्ण, नील, कपोत - ये तीन लेश्याएँ; इंद्रियवशता, आर्तध्यान, रौद्रध्यान, दृषित भावना से ज्ञान का उपयोग. और मोह - ये पापकर्म के द्वार हैं। ये सभी अशुभ कर्म हैं। वास्तविक (पारमार्थिक) दृष्टि से देखा जाये तो शुभ और अशुभ भावों के परिणाम में विशेष अन्तर नहीं है। देवों को भी स्वभावसिद्ध सुख नहीं मिलता। इसी कारण से देह-वेदना से पीड़ित होकर देव रम्य विषयों में रमण करते है। मनुष्य, देव, पशु और नारक इन चारों गतियों में देहजन्य दुःख है। सुख में मग्न देवेन्द्र और चक्रवर्ती शुभ भावों के कारण प्राप्त होने वाले भोगों में आसक्त होते हैं। शुभ उपयोग से उसके पश्चात् जाग्रत होने वाली तृष्णा से दुःखी और संतप्त होकर वे मृत्यु तक विषय-सुख की इच्छा करते हैं और अनेक प्रकार के विषयों का सेवन करते हैं। इन्द्रियजन्य सुख दुःखरूप है क्योंकि वह पराधीन है, विषम है और असंतोष पैदा करने वाला है। इस दृष्टि से पाप-पुण्य के फल में भेद नहीं है। इसे न समझकर जो पुण्योपार्जित सुख प्राप्त करने की इच्छा रखते हैं, वे अज्ञानी हैं और उ. इस घोर अपार संसार में भटकना पड़ेगा। शुभ उपयोग का फल देवताओं की सम्पत्ति है और अशुभ उपयोग का फल नरक की आपत्ति है अतः इन दोनों में सुख नहीं है।६ सारांश यह है कि शुभ परिणाम से होने वाला योग शुभ योग है और अशुभ परिणाम से होने वाला योग अशुभ योग है।" पुण्य-पाप-चर्चा 'गणधरवाद' ग्रंथ में गणधरों ने भगवान महावीर स्वामी से अनेक प्रश्न पूछे हैं। नौवें गणधर अचलभ्राता ने पुण्य-पाप के विषय में भगवान महावीर के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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