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________________ ११६ जैन-दर्शन के नव तत्त्व पुण्य-फल के जो बयालीस भेद बताये गये हैं, उन से यह स्पष्ट होता है कि पंचेन्द्रिय, जाति, मनुष्य शरीर, वज्रऋषभनाराचसंहनन आदि मोक्ष की सामग्री पुण्य से ही प्राप्त होती है। पुण्य के बिना यह सामग्री नहीं मिलती और इस सामग्री के बिना मोक्षप्राप्ति नहीं हो सकती। इसलिए विवेकपूर्वक पुण्य का स्वरूप समझकर उसका उचित प्रकार से ग्रहण करना चाहिए। सुखप्राप्ति पुण्य के कारण ही . ___पुण्य और पाप ये दोनों एक-दूसरे के विरोधी तत्त्व हैं। एक तत्त्व के दो परिणाम नहीं होते। पुण्य सुख और दुःख दोनों का कारण नहीं है। वह केवल सुख का कारण है। एक बार कालोदयी ने श्रमण भगवान् महावीर से पूछा - "भन्ते! क्या कल्याण-कर्म (पुण्य) जीव को अच्छा फल देने वाला है ?" भगवान महावीर ने कहा . “हे कालोदयी, कल्याण-कर्म (पुण्य) ऐसा होता है - जब कोई पुरुष स्वच्छ तथा सुन्दर पात्र में परोसे गये रसदार, अठारह व्यंजनों से युक्त और औषधि-मिश्रित अन्न का सेवन करता है; तब वह आरम्भ में उसे अच्छा नहीं लगता। परन्तु पाचन होने पर वह सुरूपता, सुवर्णता, सुगंधता, सुरसता, सुस्पर्शता, इष्टता, कांतियुक्तता, प्रियता, शुभता, मनोज्ञता तथा ऊर्ध्वता आदि उत्पन्न करता है। वह बार-बार सुखरूप परिणाम उत्पन्न करता है, दुःखरूप नहीं। उसी प्रकार, हे कालोदयी! प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तदान, मैथुन-परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलहव्याख्यान, पैशुन्य परपरिवाद रति-अरति, मायामृषा और मिथ्यादर्शन रूप शल्यों का विरमण (त्याग) - आरम्भ में मनुष्य हो अच्छा नहीं लगता। परन्तु बाद में परिणाम के समय सुखरूपता, सुवर्णता आदि भाव उत्पन्न करता है और बार-बार सुखरूप परिणाम उत्पन्न करता है, दुःखरूप नहीं। इसलिए हे कालोदयी! कल्याण-कर्म (पूण्य) जीव को अच्छा फल देने वाला होता है, ऐसा कहा गया है।" पुण्य से सुख ही प्राप्त होता है, दुःख लेश मात्र भी नहीं होता। पूण्य की महिमा पुण्य से मनुष्य को स्वर्ग की प्राप्ति होती है और उसी के कारण मोक्ष की भी प्राप्ति होती है। पुण्य से धर्म की प्राप्ति भी होती है। धर्म से अधिक लाभदायक वस्तु कौन-सी है ? धर्म से श्रेष्ट कोई वस्तु नहीं है और धर्म को भूल जाने जैसी कोई बुराई भी नहीं है। पुण्य का फल क्या होता है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि तीर्थकर, गणधर, ऋषि, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, देव और विद्याधरों की ऋद्धि पुण्य का फल है। पुण्य के कारण ही चक्रवर्ती के अनुरूप रूप, सम्पत्ति अभेद्य शरीर का बंधन, अतीव उत्कट निधि, रत्नऋद्धि, हाथी, घोड़े, अन्तःपुर का वैभव, भोगोपभोग, ऐश्वर्य आदि प्राप्त होते हैं। पुण्य के प्रभाव से अंधे प्राणी को दृष्टि मिलती है, वृद्ध लावण्ययुक्त होता है, निर्बल प्राणी सिंह के समान बलिष्ट हो जाता है तथा विकृत शरीर वाला व्यक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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