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________________ १०९ जैन-दर्शन के नव तत्त्व कुन्दकुन्दाचार्य जी ने पंचास्तिकाय में कहा है कि जीव के अशुभ परिणाम के निमित्त से पुद्गलवर्गणा में अशुभ कर्मरूप परिणति होती रहती है, वही पाप है। ___ जो अशुभ परिणाम जीव को दुःख देते हैं, वे पाप हैं। जो आत्मा को शुभ कर्म नहीं करने देता, वह पाप है उदाहरणार्थ असत्वेदनीय आदि। अनिष्ट पदाथों की प्राप्ति जिसके कारण होती है ऐसे कर्म को पाप कहते हैं। - जो पुण्य का शोषण करता है और जीवरूपी वस्त्र को मलिन करता है, वह पाप है।" जो शुभ कार्य द्वारा आत्मा को पावन करता है, वह पुण्य है और जो अशुभ कार्य द्वारा आत्मा का पतन करता है, वह पाप है।२ जो प्रकट है वह पुण्य है और जो गुप्त है वह पाप है। जो कृत्य अप्रच्छन्नता (प्रकट रूप) से किया जाता है, वह कृत्य पुण्य है, इसके विपरीत जो कृत्य प्रच्छन्नता (गुप्त रूप या अप्रकट रूप) से किया जाता है, वह पाप है।३ परिपूर्णानन्द वर्मा ने पुण्य-पाप के बारे में कहा है - सत्य बोलना, चोरी न करना, दूसरे का धन न हड़पना, हत्या न कराना, माता-पिता को सम्मान देना, परस्त्री - गमन न करना ये सभी बातें पुण्य, सदाचार तथा नैतिकता समझी जाती हैं। परंतु व्यहार में ऐसा दिखाई नहीं देता। अपराध और पाप की व्याख्या इतनी बड़ी है कि कोई कह नहीं सकता कि उसने हमेशा धर्म, समाज, नैतिकता और न्याय से ही काम किया है या नहीं। जो अच्छा है वह अच्छा ही है और जो बुरा है, वह बुरा ही है। इन दोनों के आदि, मध्य और अंत के विषय में कुछ कहा नहीं जा सकता। फिर भी उसे अपने किये हुए कर्म का फल आज नहीं तो कल जरूर मिलना है। हे मानव! अगर मोक्ष या स्वर्गादि सुख प्राप्त करने की तेरी इच्छा है तो पुण्य कर। उसके बिना कोई भी सुख तुझे प्राप्त नहीं हो सकता। निषिद्ध कर्म के अनुष्ठान अर्थात् - विहित कर्म के त्याग से पाप की उत्पत्ति होती है। १६.१७ अपने दोषों को छुपाना और दूसरे के दोषों को दिखाना ही पाप है। पूर्वकृत पाप-पुण्य पुण्य का फल अच्छा और पाप का फल बुरा होता है, ऐसा कहा जाता है। पुण्य का फल भोगना सुखद होता है और पाप का फल भोगना दुःखद होता है। पुण्य से आदमी सखी होता है और पाप से दःखी होता है। फिर भी दुनिया में अनेक जगह इसके विरुद्ध बातें दिखाई देती हैं। जो पुण्य कर्म करते हैं, अपने जीवन में सत्कार्य और धर्माचरण करते हैं,वे दुःखी दिखाई देते हैं। और जो रात-दिन पापकायों में मग्न रहते हैं हिंसाचार, असत्य-भाषण चोरी आदि करते रहते हैं, ऐसे पाप-कर्म करने वाले लोग सुखी दिखाई देते हैं। फिर यहाँ पुण्य का फल अच्छा और पाप का फल बुरा क्यों नहीं दिखायी देता ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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