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________________ ९४ जैन-दर्शन के नव तत्त्व वस्तुतः व्यावहारिक परमाणु स्वतः परमाणु-पिण्ड है, फिर भी वह साधारण दृष्टि से ग्राह्य नहीं होता और साधारण अस्त्र-शस्त्र से तोड़ा नही जा सकता । उसकी परिणति सूक्ष्म होती है, इसलिए उसे व्यवहार रूप से परमाणु कहा गया है। विज्ञान के परमाणु की तुलना इस व्यावहारिक परमाणु के साथ होती है। इसी कारण परमाणु टूटता है। इस विज्ञानसम्मत मान्यता को जैन-दर्शन भी कुछ अंश में स्वीकार करता है। पुद्गल के बीस गुण : स्पर्श-शीत, उष्ण, रूक्ष, स्निग्ध, लघु, गुरु, मृदु और कर्कश । रस- अम्ल, मधुर, कटु, कषाय और तिक्त । गन्ध-सुगन्ध और दुर्गन्ध । वर्ण-नील,रक्त, पीत और श्वेत । संस्थान, परिमण्डल, वृत्त, त्र्यशं, चतुरंश आदि पुद्गलों में होते हैं, परंतु वे उनके गुण नहीं हैं, अपितु स्कन्ध के आकाररूप पर्याय हैं । सूक्ष्म परमाणु के द्रव्यरूप में निरवयव और अविभाज्य होने पर भी पर्याय-दृष्टि से उसके भेद नहीं हैं । उसमें वर्ण,गंध,रस और स्पर्श ये चार गुण और अनन्त पर्याय हैं । एक परमाणु में एक वर्ण,एक गंध,एक रस,और दो स्पर्श (शीत-उष्ण, स्निग्ध-रुक्ष में से एक) होते हैं। पर्याय की दृष्टि से एक गुण वाला परमाणु अनन्त गुणों का होता है और अनन्त गुणों वाला परमाणु एक गुण का होता है । एक परमाणु में वर्ण से वर्णान्तर, गन्ध से गन्धान्तर, रस से रसान्तर और स्पर्श से स्पर्शान्तर होना जैनदृष्टि-सम्मत है। अणुवाद : पत्थर, लकड़ी जैसे ठोस पदार्थ हमारे चारों ओर हैं, उनके विभाग किए जा सकते हैं। साथ ही उन विभागों के भी और छोटे विभाग किए जा सकते हैं। विभाजन की यह क्रिया अन्ततः कहीं न कहीं रूकनी चाहिए और और ठोस पदार्थों को अन्तिम अवयव अथवा अण होना चाहिए ऐसा निश्चय हमारी बुद्धि करती हैं । इसका एक कारण यह है कि मानव-बुद्धि की प्रवत्ति कुछ न कुछ अचल अविकारी ढूँढ निकाल कर उस पर स्थिर होने की है। । एक बार अणु को नित्य मान लिया कि उसके उपसरण-अपसरण से दुनिया के अनेक पदार्थ उत्पन्न होते हैं और नष्ट हो जाते हैं। यही उत्पत्ति बुद्धि को समाधान देने वाली लगती है क्योंकि इस उपपत्ति से 'जो नहीं है उससे कुछ भी नहीं होता और जो अस्तित्त्व में है, उसका नाश संभव नहीं होता (नाभावो विद्यते सतः)', यही बुद्धि को संतुष्ट करने वाली प्रमा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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