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________________ जैन दर्शन के नव तत्त्व जो दृश्य किया जाता है, जिसका स्वाद लिया जाता है, जो सूँघा जाता है, अर्थात उसमें स्पर्श, रस, गंध और वर्ण ये चार अंग अनिवार्य रूप से होते हैं। परमाणु से लेकर महास्कन्ध पृथ्वी तक के जिस पुद्गल द्रव्य में पाँच रूप, पाँच रस, दो गंध और आठ स्पर्श, ये चार प्रकार के गुण विद्यमान हैं, जो शब्दरूप है, वह भाषा, ध्वनि आदि के भेदों से अनेक प्रकार का पुद्गल पर्याय ७७ ८७ है 1 आज के वैज्ञानिक हाइड्रोजन और नाइट्रोजन को वर्ण, गंध और रस से हीन मानते हैं । परन्तु उनका यह मत गौण है । दूसरी दृष्टि से देखने पर इन गुणों को सिद्ध किया जा सकता है । अमोनिया में एक अंश हाइड्रोजन और तीन अंश नाइट्रोजन होता है । अमोनिया में गंध और रस ये दो गुण हैं। हाइड्रोजन और नाइट्रोजन से मिलकर ही अमोनिया बनता है । इसलिए अमोनिया के जो रस और गंध गुण हैं उनका हाइड्रोजन के प्रत्येक अंश में होना आवश्यक है । जो गुप्त गुण थे वे ही उसमें प्रकट हो गए। पुद्गल द्रव्य में चारों गुण (स्पर्श, रस, गंध, वर्ण) होते हैं। चाहे वे प्रकट हों या अप्रकट । पुद्गल तीनों कालों में रहता हैं इसलिए वह सत् है अमोनिया में गंध और रस दोनों गुण हैं। इन दोनों गुणों की नवीन उत्पत्ति नहीं हो सकती क्योंकि यह सत्य है कि असत् की कभी उत्पत्ति नहीं होती और सत् का कभी नाश नहीं होता है। इसलिए जो गुण अणु में होता है, वही गुण स्कन्ध (Molecule) में आता है इसलिए पुद्गल सत् है । 1 1 जो उत्पाद व्यय एवं धौव्य से युक्त है, अपने सत् स्वभाव का त्याग नहीं करता और गुण - पर्याय सहित हैं, वह द्रव्य है । व्यय के बिना उत्पाद नहीं होता और उत्पाद के बिना व्यय नहीं होता । उत्पाद और व्यय के बिना धौव्य नहीं होता । द्रव्य का एक पर्याय उत्पन्न होता है और दूसरा पर्याय नष्ट होता है । परन्तु द्रव्य न तो कभी उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है । वह सदैव ध्रुव रहता है आज का विज्ञान भी यही मानता है कि किसी भी भौतिक पदार्थ के परिवर्तन में जड़ पदार्थ कभी नष्ट नहीं होता और नवीन पदार्थ उत्पन्न नहीं होता । केवल उसके स्वरूप में परिवर्तन होता है। मोमबत्ती के उदाहरण से यह बात स्पष्टतः समझी जा सकती हैं। इसे पदार्थ के अविनाशित्व का तत्त्व' कहते है । समस्त पुद्गल परमाणुओं से निर्मित हैं । परमाणु सूक्ष्म और अविभाज्य हैं । तत्त्वार्थराजवार्तिक में परमाणु का लक्षण और उसके विशिष्ट गुण निम्नलिखित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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