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जैन-दर्शन के नव तत्त्व अयन - तीन ऋतुओं का एक अयन होता है। वर्ष - दो अयन मिलकर एक वर्ष होता है।
जब तक वर्ष गिना जाता है, तब तक का काल संख्यात काल है। इसके अलावा पल्य, सागर, असंख्यात और अनन्त काल हैं। ये व्यवहारकाल हैं। मूल पर्याय निश्चयकाल है।
पुद्गल द्रव्य के बिना काल की मर्यादा नहीं हो सकती इसलिए व्यवहारकाल पुद्गल द्रव्य के निमित्त से उत्पन्न होता है। अर्थात् पुद्गल द्रव्य की
आदि-अन्त क्रिया से व्यवहारकाल समझा जाता है। परंतु पर्याय निश्चयकालातीत है। पुद्गल की परिणति की सिद्धि निश्चयकाल के बिना नहीं हो सकती और पुद्गल की नवीनता तथा जीर्णत्व के परिणाम की मर्यादा के बिना व्यवहार-शुद्धि नहीं हो सकती। ७३
पुद्गल (MATTER) न्याय-वैशेषिक दर्शनों ने जिसे 'भौतिक तत्त्व कहा है एवं विज्ञान ने जिसे मैटर कहा है, उसे जैन-दर्शन में पुद्गल कहा गया है। बौद्ध-दर्शन में 'पुद्गल' शब्द 'आलय-विज्ञान' 'चेतना-संतति' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। जैन-आगम-साहित्य में गौतम ने भगवान् महावीरसे पुद्गल के विषय में पूछा तब महावीर ने अभेदोपचार से पुद्गलयुक्त आत्मा को पुद्गल कहा है। परन्तु मुख्यतः पुद्गल का अर्थ 'मूर्तद्रव्य'
जीव, धर्म तथा अधर्म के असंख्य और आकाश के अनन्त खण्ड होते हैं। परन्तु पुद्गल अखण्ड द्रव्य नहीं है। उसका सब से छोटा रूप एक परमाणु और बड़ा रूप सम्पूर्ण विश्व है। इसलिए पुद्गल को पूरण-गलन-धर्मी कहा गया है। पुद्गल की व्याख्या
'पुद्गल' शब्द में दो पद हैं। 'पुद्' और 'गल' । पुद् का अर्थ है - मिल जाना (Combination) और गल का अर्थ है- नष्ट होना, गल जाना (Disintegration)। जो द्रव्य प्रतिक्षण पूर्ण होता है और नष्ट होता है, बनता है और बिगड़ता है, जुड़ता है और टूटता है, वह पुद्गल है। ०५
तत्त्वार्थाधिगमसूत्र (स्वोपज्ञभाष्य), धवला, हरिवंशपुराण, सर्वदर्शनसंग्रह, तत्त्वार्थराजवार्तिक आदि अनेक ग्रंथों में मिलना और नष्ट होना जिसका स्वभाव है, ऐसे पदार्थ को 'पुद्गल' कहा गया है। पुद्गल एक ऐसा द्रव्य है जिसे स्पर्श किया
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