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________________ जैन दर्शन के नव तत्त्व आकाश में निमित्त होना आकाशद्रव्य का कार्य है । गौतम ने पूछा "भगवन्! आकाश तत्त्व से जीव और अजीव को क्या लाभ होता है?" भगवान् महावीर ने कहा " गौतम! यदि आकाश द्रव्य नहीं होता तब ये जीव कहाँ रहे होते ? धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय कहाँ व्याप्त हुए होते? पुद्गल कहाँ रहे होते? यह विश्व निराधार ही रहा होता।** ७८ आकाश द्रव्य अचेतन है, अमूर्त है तथा विभु है । समस्त द्रव्यों को अवकाश देना ही उसका लक्षण है । वह दो भागों में विभक्त है - लोकाकाश और अलोकाकाश । धर्म और अधर्म का अस्तित्त्व जैन दर्शन के अलावा किसी भी दर्शन ने स्वीकार नहीं किया है, परन्तु आकाश के संबंध में अनेक मत प्रचलित हैं। आकाश कोई ठोस द्रव्य नहीं है । वह खाली स्थान है । वह सर्वव्यापी, अमूर्त और अनन्त - प्रदेशयुक्त है। जिस प्रकार पानी का आश्रयस्थान जलाशय है, उसी प्रकार सब द्रव्यों का आश्रयस्थान लोकाकाश है। शंका हो सकती है कि आकाश अखण्ड द्रव्य है, तो उसके दो विभाग कैसे ? इसका उत्तर यह है कि धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य के आधार पर यह विभाजन हुआ है, आकाशद्रव्य के आधार पर नहीं। आकाश एक अखण्ड द्रव्य है, परन्तु जिस खण्ड में धर्म, अधर्म, जीव, पुद्गल और काल रहते हैं, वह लोकाकाश है और जिस खण्ड में उनका अभाव है, वह अलोकाकाश है 1 आकाश अन्य द्रव्यों से ज्यादा विस्तृत है इसलिए वह आधार है और अन्य द्रव्य उसमें रहते हैं इसलिए वे आधेय हैं । जैन दृष्टि के अनुसार पृथ्वी का आधार जल है, जल का आधार वायु है और वायु का आधार आकाश है । परन्तु आकाश का आधार कोई नहीं है । वह स्वप्रतिष्ठित है। उसके लिए किसी द्रव्य की आवश्यकता नहीं है। बौद्ध, वैशेषिक, सांख्य और वेदान्त दर्शनों ने भी आकाश द्रव्य को माना है । परन्तु जैनदर्शन में आकाश द्रव्य का जैसा विस्तृत विवेचन है, वैसा कहीं नहीं है । बौद्ध दर्शन में आकाश का स्वरूप आवरणाभाव माना गया है और उसका उत्पाद, विनाश नहीं होता ऐसा कहा गया है । परन्तु जैन दर्शन ने आकाश को अभावात्मक नहीं माना है अपितु उसमें उत्पाद, विनाश और स्थिरतारूप सामान्य लक्षण स्वीकार किया है 1 - वैशेषिक-दर्शन में आकाश को एक स्वतंत्र पुद्गल माना गया है। परंतु वहाँ शब्दगुण के जनक को आकाश कहा गया है। जैन-दर्शन में दिशा को आकाश से अलग नहीं माना गया है क्योंकि आकाश के प्रदेश में ही दिशा की कल्पना की जाती है। इसके अतिरिक्त आकाश शब्दगुण का जनक नहीं हो सकता क्योंकि शब्द मूर्त और पुद्गल विशेष है। आकाश अमूर्त द्रव्य है। अमूर्त द्रव्य मूर्त द्रव्य का जनक कैसे हो सकता है? उसी प्रकार आकाश प्रकृति ( अचेतन) का विकार या ब्रहम की विवर्तता भी नहीं हो सकता क्योंकि आकाश एक स्वतंत्र द्रव्य है । आकाश को वेदान्त - दर्शन में ब्रहम का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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