SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन के नव तत्त्व आकाशास्तिकाय (Space, medium of location of soul, matter & Energies etc.) जैन- दर्शन के समान विज्ञान भी आकाश और काल को द्रव्यरूप मानता है । जो जीव और द्रव्य को अवकाश देता है उसे जिनेन्द्र भगवान् ने आकाशद्रव्य कहा है। उसके लोकाकाश और अलोकाकाश दो भेद हैं। ** ७७ आकाश द्रव्य का स्वभाव जीव, पुद्गल, धर्म तथा अधर्म को स्थान (अवकाश) देना हैं । ४५ वह जैन-दर्शन में आकाश के दो भेद माने गए हैं :- (१) लोकाकाश तथा ( २ ) अलोकाकाश। धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल और जीव ये पाँच द्रव्य जिसमें हैं, लोकाकाश है। जिसमें ये पाँच द्रव्य नहीं हैं, केवल आकाश ही है, वह अलोकाकाश है । लोकाकाश के आगे अलोकाकाश है। लोक और अलोकव्यापी सम्पूर्ण आकाश अनन्त प्रदेशी है क्योंकि अलोक का अन्त नहीं है । परंतु लोकाकाश का अन्त है I इसलिए वह असंख्यात- प्रदेशी है। ઇ દ. धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य आकाश में व्याप्त हैं। लोकाकाश (Space) में एक भी प्रदेश ऐसा नहीं, जहाँ धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय नहीं हैं। धर्मास्तिकाय आदि पाँच द्रव्य नित्य हैं, स्थिर हैं और अरूपी हैं । पुद्गल मूर्त है। धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य एक-एक हैं और निष्क्रिय हैं। ये पाँच द्रव्य नित्य हैं। इसका अर्थ यह है कि ये पाँच द्रव्य अपने सामान्य और विशेष स्वरूप से कभी च्युत नहीं होते । ये पाँच द्रव्य स्थिर हैं क्योंकि इनकी संख्या में कभी क्षय या वृद्धि नहीं होती । ४७ धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और जीवास्तिकाय ये चार द्रव्य अरूपी, अमूर्त, पुद्गलरूपी और मूर्त हैं। सारांश यह है कि नित्यत्व और अवस्थितत्त्व ये दोनों इन पाँचों द्रव्यों के समान गुणधर्म हैं। परन्तु अरूपित्व, पुद्गल को छोड़कर अन्य चार द्रव्यों का समान गुणधर्म है। नित्यत्व और अवस्थितत्त्व में अन्तर है नित्यत्व का अर्थ है अपने-अपने सामान्य और विशेष स्वरूप से न ढलना (च्युत न होना) और अवास्थितत्त्व का आशय है आपने स्वरूप में स्थिर रहना अर्थात् परस्वरूप को - प्राप्त न करना । जीवतत्त्व अपने द्रव्यात्मक सामान्य रूप को और चेतनात्मक विशेष रूप को कभी नहीं छोड़ता, यह उसका नित्यत्व है। साथ ही उक्त स्वरूप को न छोड़कर अजीव तत्त्व के स्वरूप को ग्रहण नहीं करता, यह उसका अवस्थितत्त्व है । तात्पर्य यह है कि स्वरूप को न त्यागना और परस्वरूप को ग्रहण न करना ये दोनों अंश सब द्रव्यों में एक जैसे हैं। इनमें से पहला अंश नित्यत्व है और दूसरा अंश अवस्थितत्त्व है। ४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy