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________________ ७५ जैन-दर्शन के नव तत्त्व __इस प्रकार अधर्मद्रव्य अपनी तटस्थ सहज अवस्था से अपने असंख्यात प्रदेश के साथ लोकाकाश में अविनाशी है तथा अनादि काल से विद्यमान है। उसका स्वभाव भी जीव-पुद्गल की स्थिरता का निमित्तमात्र कारण है। वह अन्य द्रव्य को बलात् नहीं रोकता। जब जीव तथा पुद्गल स्थिर अवस्था से परिणमन करते हैं तो वे अपनी स्वाभाविक उदासीन अवस्था से निमित्तमात्र सहायता पाते है। जिस प्रकार धर्मद्रव्य निमित्तमात्र गति में सहायक है, उसी प्रकार अधर्म द्रव्य स्थिरता में सहायक है। उक्त विवेचन का सार यह है कि धर्मद्रव्य और अधर्म द्रव्य कोई भी क्रिया नहीं करते। वे केवल निमित्तमात्र हैं। ___ठाणांगसूत्र में बताया गया है कि अधर्म द्रव्य सर्वव्यापी है। अखण्डता, अमूर्तता, अंसख्यप्रदेशयुक्तता और स्थितिशीलता उसके गुण हैं। धर्म, अधर्म शब्द जैन दर्शन के पारिभाषिक शब्द हैं। अन्य किसी भी दर्शन में धर्म-अधर्म का द्रव्य रूप में विचार नहीं किया गया है। जो जीव और पुद्गल चलते हैं और स्थिर होते हैं, वे निश्चय से चलते हैं और स्थिर होते हैं। अगर धर्म और अधर्म द्रव्यों ने मुख्य कारण बनकर बलपूर्वक जीव और पुद्गल को चलाया होता और स्थिर किया होता, तो हमेशा के लिए जीव और पुद्गल जो चल रहे हैं, वे चलते ही रहे होते और जो स्थिर हैं, वे स्थिर ही रहे होते। इसलिए धर्म एवं अधर्म द्रव्य मुख्य कारण नहीं हो सकते। वे जीव और पुद्गल के उपादान कारण हैं इसलिए यह बात सिद्ध होती है कि धर्म व अधर्म द्रव्य मुख्य नहीं हैं। व्यवहारनय की अपेक्षा से वे निमित्तकारण हैं, तथा निश्चयनय की अपेक्षा से वे जीव और पुद्गल की गति-स्थिति के उपादान कारण हैं। यदि धर्म एवं अधर्म द्रव्य और उनकी गति-स्थिति के गुण नहीं होते, तो लोक-अलोक का भेद नहीं रहा होता। जीव और पुद्गल ये दोनों द्रव्य गति-स्थिति अवस्था को धारण करते हैं। उनकी गति और स्थिति के बाह्य कारण धर्म, अधर्म द्रव्य ही हैं। यदि ये भेद लोक में नहीं होते, तो अलोक का भेद नहीं होता और सब ओर लोक ही होता। इसलिए धर्म-अधर्म द्रव्य निश्चित रूप से हैं। जीव और पुद्गल की जहाँ गति-स्थिति है वहाँ लोक है। उसके परे अलोक है। इस युक्तिवाद से धर्म-अधर्म की स्थिति और लोक-अलोक का भेद सिद्ध होता है। धर्म और अधर्म द्रव्य को मानने के दो मुख्य कारण हैं - (१) गतिस्थिति-निमित्तक द्रव्य और (२) लोक-अलोक की विभाजक शक्ति। प्रत्येक कार्य के लिए उपादान और निमित्त कारणों की आवश्यकता होती है। विश्व में जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य ही गतिशील हैं। गति की उत्पत्ति का मुख्य कारण जीव और पुद्गल स्वयं ही हैं। परंतु प्रश्न उठता है कि निमित्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001676
Book TitleJain Darshan ke Navtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmashilashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size11 MB
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