SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यग्दर्शन ___ साथ ही जब जीव क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की भूमिका से क्षायिक सम्यक्त्व की प्रशस्त भूमिका पर आगे बढ़ता है और इस विकास-क्रम में जब वह सम्यक्त्व मोहनीय कर्म-प्रकृति के कर्म दलिकों का अनुभव कर रहा होता है, तो सम्यक्त्व की यह अवस्था 'वेवक सम्यक्त्व' कहलाती है । वेदक सम्यक्त्व के अनन्तर जीव क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है। वस्तुतः सास्वादन और वेदक सम्यक्त्व सम्यक्त्व की मध्यान्तर अवस्थाएँ हैंपहली सम्यक्त्व से मिथ्यात्व की ओर गिरते समय और दूसरी क्षायोपशिमक सम्यक्त्व से क्षायिक सम्यक्त्व की ओर बढ़ते समय होती है । सम्यक्त्व का द्विविध वर्गीकरण-सम्यक्त्व का विश्लेषण अनेक अपेक्षाओं से किया गया है ताकि उसके विविध पहलुओं पर समुचित प्रकाश डाला जा सके। सम्यक्त्व का द्विविध वर्गीकरण चार प्रकार से किया गया है । (अ) द्रव्य सम्यक्त्व और भाव सम्यक्त्व' ( १ ) द्रव्य सम्यक्त्व-विशुद्ध रूप में परिणत किये हुए मिथ्यात्व के कर्म-परमाणु द्रव्य-सम्यक्त्व हैं। ( २ ) भाव-सम्यक्त्व-उपर्युक्त विशुद्ध पुद्गल वर्गणा के निमित्त से होने वाली तत्त्व-श्रद्धा भाव-सम्यक्त्व है । (ब) निश्चय-सम्यक्त्व और व्यवहार-सम्यक्त्व (१) निश्चय सम्यक्त्व-राग, द्वेष और मोह का अत्यल्प हो जाना, पर-पदार्थों से भेद ज्ञान एवं स्वस्वरूप में रमण, देह में रहते हुए देहाध्यास का छूट जाना, निश्चय सम्यक्त्व के लक्षण हैं । मेरा शुद्ध स्वरूप अनन्तज्ञान, अनन्त दर्शन और अनन्त आनन्द मय है । पर-भाव या आसक्ति ही बंधन का कारण है और स्वस्वभाव में रमण करना ही मोक्ष का हेतु है । मैं स्वयं ही अपना आदर्श हूँ, देव, गुरु और धर्म मेरा आत्मा ही है । ऐसी दृढ़ श्रद्धा का होना ही निश्चय सम्यक्त्व है। आत्म-केन्द्रित होना यही निश्चय सम्यक्त्व है । (२) व्यवहार सम्यक्त्व-वीतराग में देव बुद्धि ( आदर्श बुद्धि ), पाँच महाव्रतों का पालन करने वाले मुनियों में गुरु बुद्धि और जिन प्रणीत धर्म में सिद्धान्त बुद्धि रखना व्यवहार सम्यक्त्व है । (स) निसर्गज सम्यक्त्व और अधिगमज सम्यक्त्व: (१) निसर्गज सम्यक्त्व-जिस प्रकार नदी के प्रवाह में पड़ा हुआ पत्थर बिना प्रयास के ही स्वाभाविक रूप से गोल हो जाता है, उसी प्रकार संसार में भटकते हुए प्राणी को अनायास ही जब कर्मावरण के अल्प होने पर यथार्थता का बोध हो जाता है, १.-२. प्रवचनसारोद्धार ( टीका ), १४९।९४२ ३. स्थानांगसूत्र, २।११७० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy