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________________ सम्यग्दर्शन दृष्टिकोण ) को अंगीकृत भी नहीं किया, जिसमें यथार्थ ज्ञान की अल्पता होते हुए भी मिथ्या (असत्य) धारणा नहीं है, वह संक्षेप रुचि सम्यक्त्व है । १०. धर्मरुचि-तीर्थंकर प्रणीत सत् के स्वरूप, आगम साहित्य एवं नैतिक नियमों पर आस्तिक्य भाव या श्रद्धा रखना, उन्हें यथार्थ मानना धर्मरुचि सम्यक्त्व है।' सम्यक्त्व का त्रिविध वर्गीकरण-अपेक्षा भेद से सम्यक्त्व का त्रिविध वर्गीकरण भी किया गया है । जैसे कारक, रोचक और दीपक । १. कारकसम्यक्त्व-जिस यथार्थ दृष्टिकोण (सम्यक्त्व) के होने पर व्यक्ति सदाचरण या सम्यक्चारित्र की साधना में अग्रसर होता है वह कारक सम्यक्त्व है । कारक सम्यक्त्व ऐसा यथार्थ दृष्टिकोण है, जिसमें व्यक्ति आदर्श की उपलब्धि के हेतु सक्रिय एवं प्रयासशील बन जाता है । नैतिक दृष्टि से कहे तो कारक सम्यक्त्व शुभाशुभ विवेक की वह अवस्था है, जिसमें व्यक्ति जिस शुभ का निश्चय करता है उसका आचरण भी करता है । यहाँ ज्ञान और क्रिया में अभेद होता है । सुकरात का यह वचन कि 'ज्ञान ही सद्गुण है' इस अवस्था में लागू होता है । २. रोचक सम्यक्त्व-रोचक सम्यक्त्व सत्य-बोध की अवस्था है, जिसमें व्यक्ति शुभ को शुभ और अशुभ को अशुभ के रूप में जानता है और शुभ-प्राप्ति की इच्छा भी करता है, लेकिन उसके लिए प्रयास नहीं करता । सत्यासत्य विवेक होने पर भी सत्य का आचरण नहीं कर पाना रोचक सम्यक्त्व है। जैसे कोई रोगी अपनी रुग्णावस्था एवं उसके कारण को जानता है, रोग की औषधि भी जानता है और रोग से मुक्त होना भी चाहता है, लेकिन औषधि ग्रहण नहीं करता। वैसे ही रोचक सम्यक्त्व वाला व्यक्ति संसार के दुःखमय यथार्थ स्वरूप को जानता है, उससे मुक्त होना भी चाहता है, उसे मोक्ष-मार्ग का भी ज्ञान होता है, फिर भी वह सम्यक् चारित्र का पालन (चारित्रमोहनीय कर्म के उदय के कारण) नहीं कर पाता। यह अवस्था महाभारत में दुर्योधन के उस वचन के तुल्य है, जिसमें कहा गया है कि धर्म को जानते हुए भी मेरी उसमें प्रवृत्ति नहीं होती और अधर्म को जानते हुए भी मेरी उससे निवृत्ति नहीं होती है । ३. दीपक सम्यक्त्व-यह अवस्था है जिसमें व्यक्ति अपने उपदेश से दूसरों में तत्त्वजिज्ञासा उत्पन्न कर देता है और परिणामस्वरूप होनेवाले उनके यथार्थ बोध का कारण बनता है। दीपक सम्यक्त्व वाला व्यक्ति वह है जो दूसरों को सन्मार्ग पर लगा देने का कारण बन जाता है, लेकिन स्वयं कुमार्ग का ही पथिक बना रहता है। जैसे कोई नदी १. उत्तराध्ययन, २८।१६ २. विशेषावश्यकभाष्य, २६७५ ३. उद्धृत नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण, पृ० ३६० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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