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________________ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन है। असम्यक् जीवनदृष्टि पतन की ओर और सम्यक् जीवनदृष्टि उत्थान की ओर ले जाती है। इसलिए यथार्थ जीवनदृष्टि का निर्माण आवश्यक है। इसे ही भारतीय परम्परा में सम्यग्दर्शन या श्रद्धा कहा गया है । यथार्थ जीवन-दृष्टि क्या है यदि इस प्रश्न पर गम्भीरतापूर्वक विचार करें तो ज्ञात होता है कि समालोच्य सभी आचार-दर्शनों में अनासक्त एवं वीतराग जीवन दृष्टि को ही यथार्थ जीवन-दृष्टि माना गया है । जैनधर्म में सम्यग्दर्शन का स्वरूप सम्यक्त्व का दशविध वर्गीकरण उत्तराध्ययनसूत्र में सम्यग्दर्शन के, उसकी उत्पत्ति के आधार पर, दस भेद किये गये हैं, जो निम्नलिखित हैं :१. निसर्ग (स्वभाव) रुचि-जो यथार्थ दृष्टिकोण व्यक्ति में स्वतः ही उत्पन्न हो जाता है वह निसर्गरुचि सम्यक्त्व है । २. उपदेशरुचि-वोतराग की वाणी (उपदेश) को सुनकर जो यथार्थ दृष्टिकोण या श्रद्धान होता है वह उपदेशरुचि सम्यक्त्व है। ३. आज्ञारुचि-वीतराग के नैतिक आदेशों को मान कर जो यथार्थ दृष्टिकोण उत्पन्न होता है अथवा तत्त्व-श्रद्धा होती है वह आज्ञारुचि सम्यक्त्व है। ४. सूत्ररुचि-अंगप्रविष्ट एवं अंगबाह्य ग्रंथों के अध्ययन के आधार पर जो यथार्थ दृष्टिकोण या तत्त्व-श्रद्धान होता है, वह सूत्ररुचि सम्यक्त्व है ।। ५. बोजरुचि-यथार्थता के स्वल्प बोध को स्वचिन्तन के द्वारा विकसित करना बीजरुचि सम्यक्त्व है । ६. अभिगमरुचि-अंगसाहित्य एवं अन्य ग्रंथों का अर्थ एवं व्याख्या सहित अध्ययन करने से जो तत्त्वबोध एवं तत्त्व श्रद्धा उत्पन्न होती है वह अभिगमरुचि सम्यक्त्व है। ७. विस्ताररुचि-वस्तु तत्त्व (षद्रव्यों ) के अनेक पक्षों का विभिन्न अपेक्षाओं ( दृष्टिकोणों) एवं प्रमाणों से अवबोध कर उनकी यथार्थता पर श्रद्धा करना विस्तार-रुचि सम्यक्त्व है। ८. क्रियारुचि-प्रारम्भिक रूप में साधक जीवन की विभिन्न क्रियाओं के आचरण में रुचि हो और उस साधनात्मक अनुष्ठान के फलस्वरूप यथार्थता का बोध हो, वह क्रियारुचि सम्यक्त्व है। ९. संक्षेपरुचि-जो वस्तु तत्त्व का यथार्थ स्वरूप नहीं जानता है और जो आर्हत् प्रवचन ( ज्ञान ) में प्रवीण भी नहीं है, लेकिन जिसने अयथार्थ ( मिथ्या१. गीता, १७।३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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