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सम्यग्दर्शन
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कुशल-धर्म वृद्धि को, विलपुता को प्राप्त हो जाते हैं ।" इस प्रकार बुद्ध सम्यक् - दृष्टि को नैतिक जीवन के लिए आवश्यक मानते हैं । उनकी दृष्टि में मिथ्या दृष्टिकोण संसार का किनारा है और सम्यक् - दृष्टिकोण निर्वाण का किनारा है ।" बुद्ध के ये वचन यह स्पष्ट कर देते हैं कि बौद्ध दर्शन में सम्यक् - दृष्टि का कितना महत्त्वपूर्ण स्थान है ।
में भी सम्यक् - दर्शन को महत्त्वपूर्ण दृष्टि सम्पन्न व्यक्ति को कर्म का व्यक्ति संसार में परिभ्रमण करता रहता हैं | 3
afar परम्परा एवं गीता में सम्यक् वर्शन (श्रद्धा) का स्थान – वैदिक परम्परा स्थान प्राप्त है । मनुस्मृति में कहा गया है कि सम्यक् बन्धन नहीं होता है लेकिन सम्यक् - दर्शन से विहीन
गीता में यद्यपि सम्यक् - दर्शन शब्द का अभाव है, तथापि सम्यक् दर्शन को श्रद्धापरक अर्थ में लेने पर गीता में उसका महत्त्वपूर्ण स्थान सिद्ध हो जाता है। श्रद्धा गीता के आचार-दर्शन के केन्द्रीय तत्त्वों से एक है । 'श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं' कह कर गीता ने उसका महत्त्व स्पष्ट कर दिया है। गीता यह भी स्वीकार करती है कि व्यक्ति की जैसी श्रद्धा होती है, उसका जीवन के प्रति जैसा दृष्टि कोण होता है, वैसा ही वह बन जाता है । गीता में श्रीकृष्ण ने यह कह कर सम्यक् दर्शन या श्रद्धा के महत्त्व को स्पष्ट कर दिया है कि यदि दुराचारी व्यक्ति भी मुझे भजता है अर्थात् मेरे प्रति श्रद्धा रखता है तो उसे साधु ही समझो, क्योंकि वह शीघ्र ही धर्मात्मा होकर चिर शांति को प्राप्त हो "जाता है ।" गीता का यह कथन आचारांग के उस कथन से कि सम्यक्-दर्शी कोई पाप नहीं करता, काफी अधिक साम्य रखता है । आचार्य शंकर ने अपने गीताभाष्य में भी सम्यक् - दर्शन के महत्व को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि सम्यक् दर्शन निष्ठ पुरुष संसार
बीजरूप अविद्या आदि दोषों का उन्मूलन नहीं कर सके, ऐसा कदापि संभव नहीं हो सकता अर्थात् सम्यग्दर्शनयुक्त पुरुष निश्चितरूप से निर्वाण -लाभ करता है । आचार्य शंकर के अनुसार जबतक सम्यग्दर्शन नहीं होता, तबतक राग (विषयासक्ति) का उच्छेद नहीं होता और जबतक राग का उच्छेद नहीं होता, मुक्ति संभव नहीं ।
सम्यक दर्शन आध्यात्मिक जीवन का प्राण है । जिस प्रकार चेतनारहित शरीर शव है उसी प्रकार सम्यग्दर्शन से रहित व्यक्ति चलता-फिरता शव है । जैसे शव लोक में त्याज्य होता है, वैसे ही आध्यात्मिक जगत् में यह चल राव त्याज्य है । वस्तुतः सम्यक् - दर्शन एक जीवन-दृष्टि है । बिना जीवन - दृष्टि के जीवन का कोई अर्थ नहीं रहता । व्यक्ति की जीवनदृष्टि जैसी होती है उसी रूप में उसके चरित्र का निर्माण होता है । गीता में कहा है कि व्यक्ति श्रद्धामय है, जैसी श्रद्धा होती है वैसा ही वह बन जाता
१. अंगुत्तरनिकाय, १।१७ ४. गीता, १७।३ ७. भावपाहुड, १४३
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२ . वही १०।१२ ५. वही, ९।२०- ३१
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३. मनुस्मृति, ६।७४ ६. गीता (शां०) १८।१२
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