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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
का अधिकार-पत्र कहा जा सकता है । उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट कहा है कि सम्यग्दर्शन के बिना सम्यक् ज्ञान नहीं होता और सम्यग्ज्ञान के अभाव में सदाचार नहीं आता और सदाचार के अभाव में कर्मावरण से मुक्ति सम्भव नहीं और कर्मावरण से जकड़े हुए प्राणी का निर्वाण नहीं होता ।' आचारांगसूत्र में कहा है कि सम्यग्दृष्टि पापाचरण नहीं करता । जैन विचारणा के अनुसार आचरण का सत् अथवा असत् होना कर्ता के दृष्टिकोण (दर्शन) पर निर्भर है सम्यक् दृष्टि से निष्पन्न आचरण सदैव सत् होगा और मिथ्या दृष्टि से निष्पन्न आचरण सदैव असत् होगा । इसी आधार पर सूत्राकृतांगसूत्र में स्पष्ट कहा गया है कि व्यक्ति विद्वान् है, भाग्यवान् है और पराक्रमी भी है; लेकिन यदि उसका दृष्टिकोण असम्यक् है तो उसका दान, तप आदि समस्त पुरुषार्थ फलाकांक्षा से होने के कारण अशुद्ध ही होगा । वह उसे मुक्ति की ओर न ले जाकर बन्धन की ओर ही ले जावेगा । क्योंकि असम्यक्दर्शी होने के कारण वह सराग दृष्टि वाला होगा और आसक्ति या फलाशा से निष्पन्न होने के कारण उसके सभी कार्य सकाम होंगे और सकाम होने से उसके बन्धन का कारण होंगे । अतः असम्यग्दृष्टि का सारा पुरुषार्थ अशुद्ध ही कहा जायेगा, क्योंकि वह उसकी मुक्ति में बाधक होगा । लेकिन इसके विपरीत सम्यग्दृष्टि या वीतरागदृष्टि सम्पन्न व्यक्ति के सभी कार्य फलाशा से रहित होने से शुद्ध होंगे। इस प्रकार जैन- विचारणा यह बताती है कि सम्यग्दर्शन के अभाव से विचार प्रवाह सराग, सकाम या फलाकांक्षा युक्त होता है और यही कर्मों के प्रति रही हुई फलाकांक्षा बन्धन का कारण होने से पुरुषार्थ को अशुद्ध बना देती हैं जबकि सम्यक्दर्शन की उपस्थिति से विचार-प्रवाह वीतरागता, निष्कामता और अनासक्ति की ओर बढ़ता है फलाकांक्षा समाप्त हो जाती है, अतः सम्यग्दृष्टि का सारा पुरुषार्थ परिशुद्ध होता है । 3
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बौद्ध दर्शन में सम्यग्दर्शन का स्थान बौद्ध दर्शन में सम्यग्दर्शन का क्या स्थान है, यह बुद्ध के निम्न कथन से स्पष्ट हो जाता है । अंगुत्तरनिकाय में बुद्ध कहते हैं कि “भिक्षुओं, दुसरी कोई भी एक बात ऐसी नहीं जानता, जिससे अनुत्पन्न अकुशल-धर्म उत्पन्न होते हों तथा उत्पन्न अकुशल-धर्मों में वृद्धि होती हो, विपुलता होती हो, जैसे भिक्षुओं, मिथ्या-दृष्टि |
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भिक्षुओं, मिथ्या-दृष्टि वाले में अनुत्पन्न अकुशल-धर्म पैदा हो जाते हैं । उत्पन्न अकुशल-धर्म वृद्धि को, विपुलता को प्राप्त हो जाते हैं ।
भिक्षुओं, मैं दूसरी कोई भी एक बात ऐसी नहीं जानता जिससे अनुत्पन्न कुशल-धर्मो में वृद्धि होती हो, विपुलता होती हो, जैसे भिक्षुओं सम्यक् - दृष्टि |
भिक्षुओं, सम्यक् दृष्टिवाले में अनुत्पन्न कुशल-धर्म उत्पन्न हो जाते हैं । उत्पन्न १. उत्तराध्ययन, २८/३० २. आचारांग १।३।२ ३. सूत्रकृतांग १।८।२२-२३
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