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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन वह विश्व-व्यवहार में एक सांग सन्तुलन स्थापित करने के लिए भी प्रयत्नशील होता है, उसका सन्तुलित व्यक्तित्व विश्व-व्यवहार को प्रभावित भी करता है एवं उसके द्वारा सामाजिक जीवन का निर्माण भी हो सकता है। फिर भी सामाजिक जीवन में ऐसा व्यक्तित्व एक मात्र कारक नहीं होता, अतः उसके प्रयास सदैव ही सफल हों यह अनिवार्य नहीं है। सामाजिक समत्व की संस्थापना समत्वयोग का साध्य तो है, लेकिन उसकी सिद्धि वैयक्तिक समत्व पर नहीं, वरन् समाज के सभी सदस्यों के सामूहिक प्रयत्नों पर निर्भर है। फिर भी समत्व योगी के व्यवहार से न तो सामाजिक संघर्ष उत्पन्न होता है और न बाह्य संघर्षों, क्षुब्धताओं और कठिनाईयों से वह अपने मानस को विचलित होने देता है । समत्वयोग का मूल केन्द्र आन्तरिक संतुलन या समत्व है, जो कि राग और द्वेष के प्रहाण से उपलब्ध होता है । ___समत्व योग भारतीय साधना का केन्द्रीय तत्त्व है लेकिन इस समत्व की उपलब्धि कैसे हो सकती है यह विचारणीय है। सर्वप्रथम तो जैन, बौद्ध एवं गीता के आचारदर्शन समत्व की उपलब्धि के लिए त्रिविध साधना पथ का प्रतिपादन करते हैं । चेतना के ज्ञान, भाव और संकल्प पक्ष को समत्त्व से युक्त या सम्यक् बनाने हेतु जहाँ जैन दर्शन सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र का प्रतिपादन करता है वहीं बौद्ध दर्शन प्रज्ञा, शील और समाधि का और गीता ज्ञानयोग कर्मयोग और भक्तियोग का प्रतिपादन करती है। केवल इतना ही नहीं, अपितु इन आचार दर्शनों ने हमारे व्यावहारिक और सामाजिक जीवन की समता के लिये भी कुछ दिशा निर्देशक सूत्र प्रस्तुत किये हैं। हमारे व्यावहारिक जीवन की विषमताएँ तीन है-१. आसक्ति २. आग्रह और ३. अधिकार भावना । यही वैयक्तिक जीवन की विषमताएँ सामाजिक जीवन में वर्ग-विद्वेष शोषकवृत्ति और धार्मिक एवं राजनैतिक मतान्धता को जन्म देती है और परिणाम स्वरूप हिंसा, युद्ध और वर्ग संघर्ष पनपते हैं। इन विषमताओं के कारण उद्भूत संघर्षों को हम चार भागों में विभाजित कर सकते हैं
(१) व्यक्ति का आन्तरिक संघर्ष-जो आदर्श और वासना के मध्य है, यह इच्छाओं का संघर्ष है। इसे चैतसिक विषमता कहा जा सकता है। इसका सम्बन्ध व्यक्ति स्वयं से है।
(२) व्यक्ति और वातावरण का संघर्ष-व्यक्ति अपनी शारीरिक आवश्यकताओं और अन्य इच्छाओं की पूर्ति बाह्य जगत् में करता है। अनन्त इच्छा और सीमित पूर्ति के साधन इस संघर्ष को जन्म देते हैं । यह आर्थिक संघर्ष अथवा मनो-भौतिक संघर्ष है।
(३) व्यक्ति और समाज का संघर्ष-व्यक्ति अपने अहंकार की तुष्टि समाज में करता है, उस अहंकार को पोषण देने के लिए अनेक मिथ्या विश्वासों का समाज में सृजन करता है । यही वैचारिक संघर्ष का जन्म होता है। ऊँच-नीच का भाव, धार्मिक मतान्धता और विभिन्न वाद उसी के परिणाम हैं।
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