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उपसंहार
५०३ है । क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों आवेग या कषाय मानसिक समत्व को भंग करते हैं । यदि व्यक्ति मूलक विघटनकारी तत्त्वों का मनोवैज्ञानिक दृष्टिसे विश्लेषण किया जाय तो उनके मूल में कहीं न कहीं जैन दर्शन में प्रस्तुत कषायों एवं नो-कषायों (आवेगों और उप-आवेगों) की उपस्थिति ही दिखाई देती है। जैन आचार-दर्शन कषाय-त्याग के रूप में मानसिक विषमता के निराकरण का सन्देश देता है । वह बताता है कि हम जैसे-जैसे इन कषायों के ऊपर विजय-लाभ करते हुए आगे बढ़ेंगे वैसे ही वैसे हमारे व्यक्तित्व की पूर्णता प्रकट होगी । जैन-दर्शन में साधकों की चार श्रेणियाँ मानी गयी हैं, वे इन पर क्रमिक विजय को प्रकट करती है । इनके प्रथम तीव्रतम रूप पर विजय पाने पर साधक में यथार्थ दृष्टिकोण का उद्भव होता है। द्वितीय मध्यम रूप पर विजय प्राप्त करने से साधक श्रावक या गृहस्थ उपासक की श्रेणी में आता है। तृतीय अल्प रूप पर विजय करने पर वह श्रमणत्व का लाभ करता है और उनके सम्पूर्ण विजय पर वह आत्मपूर्णता को प्रकट कर लेता है । कषायों की पूर्ण-समाप्ति पर एक पूर्ण व्यक्तित्व प्रकट होता है। इस प्रकार जैन आचार-दर्शन कषाय के रूप में हमारी मानसिक विषमताओं का कारण प्रस्तुत करता है और कषाय-जय के रूप में मानसिक समता के निर्माण की धारणा को स्थापित करता है ।
मानव-मन की अशान्ति और दुःख के कारणों के मूल में मानसिक तनाव या मनोवेग ही है । मानव-मन की अशान्ति एवं उसके अधिकांश दुःख कषाय-जनित है । अतः शान्त और सुखी जीवन के लिए मानसिक तनावों एवं मनोवेगों से मुक्ति पाना आवश्यक है । क्रोधादि कषायों पर विजय प्राप्त करके ही हम शान्त मानसिक जीवन जी सकते हैं अतः मानसिक विषमता के निराकरण और मानसिक समता के सृजन के लिए हमें मनोवेगों से ऊपर उठना होगा । जैसे-जैसे हम मनोवेगों या कषाय-चतुष्क से ऊपर उठेंगे, वैसे-वैसे ही सच्ची शान्ति प्राप्त करेंगे।
इस प्रकार जैन आचार-दर्शन जीवन से विषमताओं के निराकरण और समत्व स्थापना के लिए एक ऐसी आचार विधि प्रस्तुत करता है, जिसके सम्यक् परिपालन से सामाजिक और वैयक्तिक जीवन में सच्ची शान्ति और वास्तविक सुख प्राप्त किया जा सकता है। वैषम्य-निराकरण के सूत्रविषमताएँ विषमताओं के निरा- निराकरण का परि- पुरुषार्थ-चतुष्टय से कारण के सिद्धान्त णाम
सम्बन्ध १. आर्थिक विषमता अपरिग्रह (परिग्रह का साम्यवाद. अर्थ पुरुषार्थ
परिसीमन) (सम-वितरण) . ..
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